Book Title: Jain Sanskrit Mahakavya
Author(s): Satyavrat
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 442
________________ पार्श्वनाथचरित : हेमविजयगणि ४२७ भोग्य कर्मों के फल का क्षय होने पर तपस्या ग्रहण करने का निश्चय किया । 'जिनेन्द्र अपने भोगकर्मों का क्षय करने के लिये गार्हस्थ्य जीवन स्वीकार करते हैं, इस तथ्य का पार्श्वनाथचरित में, पार्श्व के विवाह-प्रसंग में उल्लेख अवश्य है किंतु उनकी प्रव्रज्या का तात्कालिक कारण, प्रासाद में अंकित नेमिनाथ का प्रेरक चरित था, जिसे देखकर उनमें संवेग का उद्रेक होता है। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित में केवलज्ञानी पार्श्व अपनी प्रथम देशना में पंच व्रतों तथा उनके व्यतिक्रमों का विवेचन करते हैं । पार्श्वनाथचरित में उसके अन्तर्गत चतुर्विध धर्म का निरूपण किया गया सुवर्णबाहु तथा तापसबाला पद्मा के विवाह का प्रकरण यद्यपि त्रि० श० पु० चरित में उपलब्ध है और हेमविजय ने उसी के अनुसार, अपने काव्य में, इसका प्रतिपादन किया है। किंतु इस प्रसंग के लिये स्वयं हेमचन्द्र कालिदास के अभिज्ञानशाकुन्तल के ऋणी हैं। उन्होंने नाटक के प्रथम चार अंकों की प्रमुख घटनाएँ अपने वृत्त की प्रकृति के अनुरूप प्रस्तुत की हैं। जैन कवियों के विवरण में क्योंकि मुनि गालव स्वयं, तपस्वी की भविष्यवाणी के अनुसार, स्वर्णबाहु से पद्मा के विवाह का प्रस्ताव करते हैं, अतः उनके प्रणय की उद्भूति तथा परिणति के लिये, कण्व की तरह गालव को तपोवन से देर तक दूर रखना भावश्यक नहीं था। काव्य में वे अभ्यागत ऋषि को विदा करके आश्रम में शीघ्र लौट आते हैं। नाटक के चतुर्थ अंक तक सीमित होने के कारण पार्श्वनाथचरित के इस प्रसंग में दुर्वासा के शाप के लिये भी कोई अवकाश नहीं है। शेष प्रायः समस्त घटनाएँ अभिज्ञानशाकुन्तल की अनुगामी हैं। स्वर्णबाहु के आश्रम में आगमन से लेकर पद्मा की कारुणिक विदाई तक के समस्त इतिवृत्त को काव्य में समेटने का प्रयास किया गया है । रसचित्रण अश्वघोष की तरह हेमविजय ने कवियश की प्राप्ति अथवा चमत्कृति उत्पन्न करने के लिये काव्यरचना नहीं की है । उसका प्रमुख उद्देश्य कविता के सरस माध्यम १७. भोगकर्मक्षयार्थ हि जिना गार्हस्थ्यवासिनः । पार्श्वनाथचरित, ४.६७२ १८. वही, ५.५७-६३ १६. वही, ५.३६८-२८ २०. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (पूर्वोक्त) पृ० ३७१-३७५ २१. पार्श्वनाथचरित, ३.६३-२३४ २१. इस विषय की विस्तृत विवेचना के लिए देखिये हमारा निबन्ध 'A Versified Adaptation of Abhijñānaśākuntalam (I-IV)' VIJ, Hoshiarpur, 1981, P,99-105

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