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पार्श्वनाथ काव्य : पद्मसुन्दर
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हो जाता है जैसे अलंकारों से काव्य की शोभा में वृद्धि होती है" । काव्य में उनके रूप का विस्तृत वर्णन किया गया है ।
पार्श्वनाथ का चरित्र वीरता तथा विरक्ति के दो ध्रुवों में बंधा हुआ है । कुशस्थल के शासक अर्ककीत्ति के अनुरोध से वे कालयवन को समरांगण में तत्काल घेर लेते हैं । उनके पराक्रम तथा युद्धकौशल से यवन की सेना क्षत-विक्षत हो जाती है । इससे अकीति न केवल पराजय से, अपितु शत्रु को पुत्री देने के अपमान से भी बच जाता है । वे कुशस्थलनरेश के प्रस्ताव को स्वीकार तो करते हैं परन्तु वैराग्य की प्रबलता के कारण वे संयम-श्री का वरण करते हैं और तपश्चर्या के द्वारा क्रमशः केवलज्ञान तथा निर्वाण को प्राप्त होते हैं ।
अश्वसेन
अश्वसेन वाराणसी के शासक तथा काव्यनायक के पिता हैं । उनके प्रताप से भीत होकर सूर्य ने अपनी रक्षा के लिये चारों ओर परिधि के दुर्ग की रचना की है । उनके नेत्र तत्त्वभेदी हैं । वे चररूपी चक्षु से प्रजा की गतिविधियाँ देखते हैं और विचार के नेत्र से गूढतम रहस्यों का तल उन्हें प्रत्यक्ष दिखाई देता है । उन्होंने प्रजा की सुरक्षा की ऐसी चारु व्यवस्था की है कि उनके राज्य में भय का नाम भी नहीं रहा । प्रजा उनसे वस्तुतः सनाथ है । वह 'राजन्वती' है । उनके जीवन में चतुर्वर्ग का मनोरम समन्वय है । अर्थ और काम का भी धर्म से संघर्ष नहीं है । वे सज्जनों के लिये चन्द्रमा के समान सौम्य हैं किंतु दुष्टों के लिये साक्षात् यम हैं" । उनके पुत्र प्रेम का काव्य से यथेष्ट परिचय मिलता है ।
अर्ककीत्ति
अर्क कीर्ति कुशस्थल का शासक है । कालयवन उसकी पुत्री को हथियाने के लिये उस पर आक्रमण करता है किंतु पार्श्व की सहायता से वह, उसके दुस्साहस के साथ, उसे भी चूर कर देता है । दर्शन
अश्वघोष के समान काव्य की सरस भाषा में दार्शनिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन करना पद्मसुन्दर की काव्यरचना का उद्देश्य है । समवसरण में पार्श्व प्रभु की देशना में इसके लिये उपयुक्त अवसर था, जिसका कवि ने पूरा उपयोग किया है । यहाँ जैन दर्शन के कुछ सिद्धान्तों का विस्तृत निरूपण किया गया है ।
जैन दर्शन में जीव तथा अजीव के भेद से तत्त्व दो प्रकार का माना गया है । जीव का लक्षण चैतन्य है । उसके मुक्त तथा भवस्थ दो भेद हैं । भवस्थ जीव पुनः दो प्रकार का है - भव्य और अभव्य । मुक्त जीव स्वभाव से ऊर्ध्वगामी है । वह
१६. सालंकारः कवेः काव्यसन्दर्भ इव स व्यभात् । वही, ३.१५६
१७. वही, ३.११-१६