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पार्श्वनाथकाव्य : पद्मसुन्दर
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ललाटपट्टमस्याभादर्धचन्द्रनिभं विभोः । लक्ष्म्याः पट्टाभिषेकाय तत्पीठमिव कल्पितम् ॥ ४.४६ ध्रुवौ विनीले रेजाते सुषमासुन्दरे विभोः । विन्यस्ते वागुरे नूनं स्मरणस्यैव बन्धने ॥ ४.५० नेत्रे विनीलतारेऽस्य सुन्दरे तरलायते। प्रवातेन्दीवरे सद्विरेफे इव रराजतुः ॥ ४.५१ तदूरुद्वयमद्वैतश्रिया भ्राजते सुन्दरम् । स्मररत्योश्च दम्पत्योः कीर्तिस्तम्भद्वयं नु तत् ॥ ४.६३
आभूषणों तथा प्रसाधनों से सौन्दर्य-वृद्धि करने की शैली का शिशु पार्श्व के, जन्माभिषेक के पश्चात्, अलंकरण में आश्रय लिया गया है। शची शिशु की आँखों में अंजन आँजती है, कटि पर रत्नों की मेखला पहनाती है, और चरणों को मणिजटित भूषणों से अलंकृत करती है।
इन्दीवरनिभे स्निग्धे लोचने विश्वचक्षुषः। शची चक्रंजनाचारं बभौ तेन निरंजनः ॥ ३.१४७ कटीतटेऽस्य विन्यस्तं किंकिणीभिः सभासुरं।। कांचीदाम स्फुरद्रत्नरचितं निचितं श्रिया ॥ ३.१५१ चरणौ किरणोद्दीप्तः स्फुरद्भिर्मणिभूषणैः । गोमुखोद्भासिभिर्यस्तै रेजतुर्जगदीशितुः ॥ ३.१५२
विविध भंगिमाओं से पात्रों के सौन्दर्य का यह मनोयोगपूर्वक चित्रण कवि की सौन्दर्यान्वेषी वृत्ति तथा कल्पनाशीलता का परिचायक है। प्रकृति-चित्रण
वीतराग जैन साधु मानव के शारीरिक सौन्दर्य पर इतना मुग्ध है कि प्रकृति का विराट् उन्मुक्त सौन्दर्य उसे आकर्षित नहीं कर सका। पार्श्वनाथकाव्य में प्रभात का सामान्य-सा चित्रण किया गया है। कहने को तो पद्मसुन्दर ने साहित्य की सुविज्ञात शैलियों को अपने प्रकृति-वर्णन का आधार बनाया है, किन्तु यह महाकाव्यपरम्परा का निर्वाह मात्र है। तृतीय सर्ग में प्रभातवर्णन के अन्तर्गत अलंकृत तथा स्वाभाविक शैलियों का मिश्रण है। प्रातःकाल बाल-रवि की किरणें गगन में फैल जाती हैं, सरोवर सारसों के शब्द से गुंजित हो जाते हैं तथा सुगन्धित समीर से वातावरण महक उठता है। निम्नोक्त पंक्तियों में, प्रभात के इन उपकरणों का स्वाभाविक (अनलंकृत) वर्णन है।
इतः प्राच्यां विभान्ति स्म स्तोकोन्मुक्ताः करा रवेः । इतः सारससंरावाः श्रूयन्ते सरसीष्वपि ॥ ३.३४