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जैन संस्कृत महाकाव्य
नायिका, कवि की तूलिका ने उन सब के चित्रों में आकर्षक रंग भरे हैं। पार्श्व तथा वसुन्धरिका का चित्रण नखशिख-प्रणाली से किया गया है। वामा के रूप को समग्र रूप में अभिव्यक्ति मिली है। कुशस्थल-नरेश अर्ककीत्ति की रूपसी पुत्री प्रभावती के लावण्य के चित्रण में इन तथा कतिपय अन्य शैलियों का सम्मिश्रण है, यद्यपि उनमें निश्चित क्रम का अभाव है। उन्हें अलग-अलग करके यहाँ प्रस्तुत किया जाता है।
सर्वप्रथम पद्मसुन्दर ने नखशिख-शैली से प्रभावती के अंगों-प्रत्यंगों का सविस्तार वर्णन करके उसके अनवद्य सौन्दर्य को वाणी देने का गम्भीर उद्योग किया है। कवि ने प्रभावती के विभिन्न अवयवों के वर्णन में ऐसे अर्थवान् उपमानों की सम्भावना की है कि राजकुमारी का सौन्दर्य सहसा मानस चक्षुओं के सामने स्फुरित हो जाता है और वह नवयौवना त्रिलोकसुन्दरी प्रतीत होने लगती है।
तदीयमध्यं नतनाभिसुन्दरं बभार भूषां सबलित्रयं परा। प्रक्लुप्तसोपानमिदं विनिर्ममे स्वमज्जनायेव सुतीर्थमात्मभूः ॥ ५.१७ विसारितारद्युतिहारहारिणौ स्तनौ नु तस्याः सुषमामवापतुः । सुरापगातीरयुगाश्रितस्य तौ रथांगयुग्मस्य तु कुंकुमांचितौ ॥ ५.१६ इयं सुकेश्याः कचपाशमंजरी विधंतुदस्य प्रतिमामुपेयुषी। मुखेन्दुबिम्बग्रसन झलिप्सया तमोऽजनस्निग्धविभा विभाव्यते ॥ ५.३४ समग्रसर्गाद्भुतरूपसम्पदा दिदृक्षयकत्र विधिय॑धादिव : जगत्त्रयीयौवतमौलिमालिकामशेषसौन्दर्यपरिष्कृतां नु ताम् ॥ ५.३५
पद्मसुन्दर ने अप्रस्तुत की अपेक्षा प्रस्तुत को अधिक गुणवान् बताकर, व्यतिरेक के द्वारा तथा अतिशयोक्ति५ की असम्भव कल्पनाओं से भी प्रभावती के सर्वातिशायी सौन्दर्य का संकेत किया है।
युवक पार्श्व के रूप के वर्णन का माध्यम भी चिरपरिचित नखाशिखप्रणाली है जो पार्श्व के कायिक सौन्दर्य का क्रमबद्ध तथा विस्तृत वर्णन करने में विशेष उपयोगी सिद्ध हुई है । पार्श्व के ललाट, भौंहों, तरल-विशाल नेत्रों, नासिका-विवर, तथा ऊरुओं की क्रमशः लक्ष्मी के अभिषेक-पट्ट, काम की वागुराओं, वायु से हिलते नीलकमलों, वाग्लक्ष्मी के प्रवेश-मार्ग तथा काम एवं रति के कीर्तिस्तम्भों के साथ तुलना करके कवि ने मौलिकता का परिचय दिया है। १४. तदीयजंघाद्वयीदीप्तिनिजितां वनं गता सा कदली तपस्यति ।
चिराय वातातपशीतकर्षणैरधःशिरा नूनमखण्डितव्रता ॥ वही, ५.१३ १५. रदच्छदोऽस्याः स्मितदीप्तिभासुरो यदि प्रवालः प्रतिबद्धहीरकः ।
तदोपमीयेत विजित्य निर्वृतः सुपक्वबिम्बं किल बिम्बतां गतम् ॥ वही, ५.२६