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श्रीधरचरित : माणिक्यसुन्दरसूरि
३८५ अष्टापद तथा रत्नपुर के वर्णन इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। अष्टापदपर्वत के शिखरों की नीलमणियों में बिम्बित आकाश की नीलिमा और गहरा गयी है । वह ऐसा प्रतीत होता है मानो भगवान् विष्णु शेषशय्या पर सो रहे हों। रत्नपुर के रत्ननिर्मित महलों में वितानों के मोतियों की प्रतिच्छाया पृथ्वी पर पड़ रही है । लगता है आकाश पृथ्वी पर उतर आया है। प्रतिबिम्बित मोतियों के रूप में तारे ही चमक रहे हैं।
श्रीधरचरित की भाषा में कतिपय दोष भी विद्यमान हैं, जिनकी ओर संकेत करना आवश्यक है । काव्य में प्रयुक्त कुछ रूप व्याकरण की दृष्टि से चिन्त्य हैं । 'त्वयि रोचते' (५.३०), प्रेक्षतः (६.१०)ह वातुम् (६.४६), सहन् (८.६८), सुश्रूषयन् (८.१६७), सहन्तः (६.१३४) आदि प्रयोग च्युतसंस्कारत्व से दूषित हैं । माणिक्यसुन्दर की शुद्धभाषा के प्रयोग की क्षमता को देखते हुए ये व्याकरण-विरुद्ध प्रयोग आश्चर्यजनक हैं । यह 'गच्छतः स्खलनम्' है अथवा छन्दोभंग से बचने के लिये जानबूझ कर गढे गये प्रयोग, निश्चत कहना सम्भव नहीं। श्रीधरचरित में यत्र-तत्र देशी शब्दों का भी प्रयोग हुआ है-कटारि (३.१६), वाह्याली (४.४३), पीद (५.५४); माढिः (६.६८), चुण्डि (८.४८०), चुणित्वा (६.८८)। पाण्डित्य-प्रदर्शन
माणिक्यसुन्दर ने खड्गबन्ध, मुरजबन्ध, गोमूत्रिका आदि चित्रकाव्य से बौद्धिक व्यायाम कराने का प्रयास तो नहीं किया है, किन्तु वह समवर्ती प्रवृत्ति से अप्रभावित नहीं रह सका । पण्डित-वर्ग के बौद्धिक रंजन के लिये उसने छठे सर्ग में, पार्श्वस्तुति के प्रसंग में, ऐसे पद्यों की रचना की है जो यथार्थतः चित्रकाव्य न होते हुए भी उसी प्रवृत्ति का संकेत देते हैं। इनमें कहीं कर्ता, कर्म, क्रिया, विशेषण आदि छह गुप्त हैं, कहीं तेरह । कोई पद्य नामचित्र का उदाहरण प्रस्तुत करता है, तो कोई विभ्रमचित्र का । निम्नांकित पद्य में त्रयोदश गुप्त हैं।
कमलनाथ ! मनोहरहंसवद् भवतमोऽपि विभा विभवालय ।
गुरुगुणवजगौरव ! ते गुणान्मम मुदा स्तुवतः स्तुतिगोचरम् ॥ ६.७० अत्र त्रयोदश गुप्तानि, तथाहि १. कं-कर्मगुप्तम् । २. अल-क्रियागुप्तम् । ३. न-शब्दगुप्तम् । ४. अथ-शब्दगुप्तम् । ५. मन:-कर्मगुप्तम् । ६. हरक्रियागुप्तम् । ७. हंसवत्-अर्थगुप्तम् । ८. विभा–कर्मगुप्तम् । ६. विभोसम्बोधनगुप्तम् । १०. आलय-क्रियागुप्तम् । ११. व्रज-अर्थगुप्तम् । १२. गौ:कर्तृविशेषणगुप्तम् । १३. अव-क्रियागुप्तम् ।
निम्नांकित पद्य में 'अपभ्रंशभाषाचित्र' है। ४७. वही, ६.५६ ४८. वही, ६.१०६