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श्रीधरचरित : माणिक्यसुन्दरसूरि
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धर्म समस्त मंगल, सुख तथा यश का शाश्वत स्रोत है । संसार में मनुष्य के परित्राण के लिए धर्म से बढ कर कोई अन्य उपाय नहीं है । अतः मनुष्य को पुण्यार्जन के द्वारा धर्माराधन में निष्ठापूर्वक तत्पर रहना चाहिए। भवसागर को पार करने के लिये धर्म विश्वसनीय नौका है। सदाचार उसका चप्पू है। मोहान्ध लोग यौवन में धर्माचरण छोड़ कर विषयों में आसक्त रहते हैं परन्तु जो विषयों को त्याग कर कालान्तर में भी धर्म का पालन करते हैं, वे भी प्रशंसा के पात्र हैं । दर्शन
श्रीधरचरित में किसी दार्शनिक सिद्धान्त का क्रमबद्ध विवेचन नहीं किया गया है। जैन दर्शन के आधारभूत कर्मसिद्धांत की अपरिहार्यता की चर्चा काव्य में अवश्य हुई है । जब तक तप द्वारा कर्म की निर्जरा नहीं होती, मनुष्य को अपने शुभाशुभ कर्म का फल अनिवार्यतः भोगना पड़ता है। सत्कर्मों से प्रेरित धर्म का फल स्वर्ग है । असत्कर्मों के कारण धर्म तथा नय से भ्रष्ट होकर मनुष्य को नारकीय यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं। इस तथ्य को काव्य में बार-बार रेखांकित किया गया है। कुमार विजयचन्द्र अपनी नववधू के पूर्वभवों का वर्णन सुनकर कर्मगति की प्रभविष्णुता से चकित रह जाता है ।
भूपो व्यचिन्तयच्चित्ते कीदृशं भवनाटकम् ।
जन्तवो यत्र नृत्यन्ति बहुधा निजकर्ममिः॥ ८.६४ काव्य में प्रतिपादित धर्म तथा दर्शन का सार निम्नोक्त पद्य से संचित है।
सुलभं जगति जन्म मानुषं
तत्र जैनवचनं सुदुर्लभम् । कश्चिदेव लभते च भाग्यवान्
सिद्धिनायकसुतांगसंगमम् ॥ ८.१४८ श्रीधरचरित में सांख्य के पुरुष, योग के अष्टागों तथा बौद्धदर्शन के विज्ञान, वाद का भी उल्लेख हुआ है। भाषा
श्रीधरचरित का प्रमुख आकर्षण इसकी मधुर भाषा है । माणिक्यसुन्दर ने ३६. वही, ३.१७ ४०. वही, ६.७४, ७६ ४१. वही, ८.५४२ ४२. वही, ६.१४६-१४७ ४३. वही, ८.५० ४४. वही, ८.६६ ४५. वही, ८.६५ ४६. वही. क्रमशः ८.२३, ६.१५६ तथा ६.२८