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जैन संस्कृत महाकाव्य
काव्य में नरमेध तथा पशुमेध का विस्तृत वर्णन यद्यपि वैदिक धर्म की,
"
विशेषतः यज्ञव्यवस्था की खिल्ली उड़ाने के लिए किया है, किन्तु इससे इस क्रूर प्रथा के किसी रूप में प्रचलन का संकेत अवश्य मिलता है । राजा चन्द्रबल द्वारा एक साथ १०८ व्यक्तियों की बलि देने का उल्लेख काव्य में आया है । "
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युद्ध में पहली रात शस्त्रजागरण करने की प्रथा थी । " शत्रुपक्ष को आतंकित एवं पराभूत करने के लिए युद्ध में अन्यान्य शस्त्रास्त्रों के अतिरिक्त विविध विद्याओं का आश्रय लिया जाता था, जो सदैव निर्दोष नहीं थीं । विजयचन्द्र ने प्रताप के नेतृत्व में लड़ने वाले राजाओं के सैनिकों को अवस्वापिनी विद्या से सुलाकर निश्शस्त्र किया था । मृतजीवनी - विद्या के बल से मृत सैनिकों को पुनर्जीवित किया जाता था । वज्रदाढ के साथ युद्ध में विजयचन्द्र ने अपने तथा विपक्ष के मृत योद्धाओं को इसी विद्या के द्वारा जीवन प्रदान किया था । ३४ सैनिकों को समरांगण में प्रयाण करने की सूचना देने के लिए रणभेरी बजाई जाती थी । १५ काव्य से स्त्रीहरण, अगम्यागमन आदि कुरीतियों के मिलता है, किन्तु उन्हें गर्हित तथा निन्द्य माना जाता था । करने का उल्लेख भी काव्य में आया है ।"
धर्म
काव्य में धर्मोपदेशों के अन्तर्गत धर्म के कतिपय सामान्य सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है । काव्य में निरूपित विचारधारा के अनुसार मानवजीवन का सार धर्म है और धर्म का मर्म दया । दया को जो आयाम जैन धर्म ने दिया, वह अन्यत्र दुर्लभ है । इसीलिए जैन धर्म सर्वश्रेष्ठ है । दया के बिना धर्म उसी तरह व्यर्थ है जैसे पुतली के बिना आँख तथा जल के बिना सरोवर । मनुष्य चार व्रतों का
पालन करे अथवा पांच का या बारह व्रत धारण करे इन
प्राणों से
है | अहिंसा (दया) का फल मोक्ष है । " दूसरे के करना विषभक्षण के समान है ।"
३१. वही, ८.२१६-२२०
३२. वही, ८.३६६
३३. वही, ८.२४-२५
प्रचलन का भी संकेत कंठपाश से आत्महत्या
३४. वही, ८.४००
३५. वही, ८.३९१
३६. वही, ८.१६७
३७. वही, ४.१६-२० तथा २२ ३८. वही, ६.६१
सब का मूलाधार दया अपने प्राणों की रक्षा