________________
जैन संस्कृत महाकाव्य
अस्मिन् संसारे सारं तावन्नृणां भवः ।
तत्रापि धर्मो धर्मेऽपि कृपां विद्धि नृपांगज ॥४.१८
रत्नांगद के राज्य की सुव्यवस्था का निरूपण परिसंख्या पर आधारित है। यहाँ भारभीति का चौरभीति तथा शत्रुभीति से व्यवच्छेद किया गया है ।
नक्तं दिने वा दिवसावसाने तन्मण्डलेऽध्वन्यधश्चरन्ती। विभूषणं मुंचति भारभीत्या न चौरभीत्या न च शत्रुभीत्या ॥६.३०
सूर्योदय के वर्णन में कवि ने प्रकृति पर मानव व्यवहार के आरोप से समासोक्ति का पर्याप्त प्रयोग किया है, इसका संकेत प्रकृति-चित्रण के प्रसंग में किया जा चुका है। इस पद्य में प्रस्तुत चन्द्रमा, सूर्य तथा आकाश पर क्रमशः अप्रस्तुत जार, पति तथा नायिका के व्यवहार का आरोप किया गया है।
दिवं शशांकः परिभुज्य मित्रागमात् पलायिष्ट रयात् त्रपालुः ।
धम्मिलतां सापि तमःशिरोजभारं नयत्याशु रतिप्रकीर्णम् ॥६.८८ श्रीधरचरित का शास्त्रपक्ष-छन्दविधान
शास्त्रकाव्य की भाँति श्रीधरचरित कवि के छन्दशास्त्र के पाण्डित्य का दर्पण है । माणिक्यसुन्दर का उद्देश्य चरितवर्णन के साथ-साथ छन्दों के प्रायोगिक उदाहरणों से विद्वानों को चमत्कृत करना है । इस दृष्टि से श्रीधरचरित की शास्त्रकाव्यों में गणना करना न्यायोचित होगा। क िके विचार में लक्ष्यलक्षण-सहित छन्दों का प्रदर्शन दुग्धतुल्य काव्य में शर्करा के समान है । इसीलिये उसने अपने छन्दशास्त्र का काव्य में विधिवत् विवेचन किया है। प्रथम सर्ग में छन्दशास्त्र के आधारभूत नियमों का प्रतिपादन किया गया है । इसमें आठ गणों की व्यवस्था तथा उनके क्रम का विधान, छन्दों का मात्रा तथा वर्णवृत्तों में विभाजन, वर्णवृत्तों के उपभेद, गुरुलघु अक्षरों का विधान तथा छब्बीस जातियों का उल्लेख है । एकाक्षर पाद में एकएक अक्षर की वृद्धि करके भिन्न-भिन्न छन्द हो जाते हैं । पाद में अक्षरवृद्धि तब तक हो सकती है जब तक छब्बीस अक्षर वाला पाद न हो जाए। छब्बीस अक्षर की जाति से आगे चण्डवृष्टि से दण्डक तक छन्द कहे गये हैं। कथित छन्दों से अन्य छन्द 'गाथा' है, शेष षट्पदिका आदि । माणिक्यसुन्दर का यह विवरण वृत्तरत्नाकर के अनुसार है । केवल संयुक्त र के पूर्ववर्ती अक्षर की स्थिति के विषय में दोनों में मतभेद है। जहाँ वृत्तरत्नाकर में संयुक्ताक्षर से पूर्व स्थित प्रत्येक अक्षर को गुरु मान कर संयुक्त र से पहले अक्षर को केवल विशेष परिस्थिति में ह्रस्व मानने का विधान ४६. कृतपण्डितसौहित्यं साहित्यं वच्मि किंचन । वही, ६.१५ ५०. लक्ष्यलक्षणसंयुक्तं छन्दसो यत्प्रदर्शनम् । - स्निग्धदुग्धसमे ग्रन्थे ननं तच्चारुशर्करा ॥ वही, १.१६ ५१. वही, १.२४-२५