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जैन संस्कृत महाकाव्य
नरकंकालमालाभिः कलितं पुरतो दिशम् । करोटिस्फोटनासक्तशुनां कुलेन ढौकितम् ॥ १.१२० क्वचित्कासारखण्डेन क्वचिन्मुण्डेन मण्डितम् । क्वचिन्मज्जावशास्वादभ्रमबहुलमक्षिकम् ॥ १.१२१
अभयरुचि से उसके पूर्वभवों तथा हिंसा की घोर परिणति का दारुण वर्णन सुनकर देवी चण्डमारी, अपनी क्रूर प्रकृति छोड़कर, शान्त हो जाती है। वह स्वयं मूनिकुमार को अर्घ्य देती है और उससे क्षमायाचना करती है। उसके इस सहसा परिवर्तन के वर्णन में अद्भुत रस की छटा है।
चकोरलोचना चारुचन्दनागुरुचिता। वनदेवी तदा शांता जनः सर्वेविलोकिता ॥८.१४६ अदादर्घ तदा देवी स्वयमेव तयोर्द्वयोः । मणिपात्रस्थितैर्दूर्वादधिपुष्पविलेपनैः ॥ ८.१४७ पतित्वा तत्पदद्वन्द्व भूतलाहितमस्तका। उवाच मृदुतोपेता पापापगतमानसा ॥ ८.१४८
करुणरस की अवतारणा, यशोधर की हत्या पर उसके पुत्र यशोमति के विलाप में हुई है। पद्मनाभ की करुणा, जैन कवियों की परम्परा के अनुरूप, रोनेचिल्लाने तक सीमित है और उसी प्रकार वह मार्मिकता से शून्य है (५.२-४) । प्रकृतिचित्रण
अपने धार्मिक कथानक की नीरसता को मेटने के लिए पद्मनाभ ने काव्य में प्रकृति का मनोरम चित्रण किया है। पौराणिक काव्य के मरुस्थल में प्रकृति के ये हरे-भरे उद्यान सचमुच श्रान्त पथिक को समुचित विश्राम प्रदान करते हैं।
यशोधरचरित्र के प्रकृति-चित्रण पर तत्कालीन परिवेश की छाप है, किन्तु अधिकतर समवर्ती कवियों के विपरीत पद्मनाभ ने प्रकृति के आलम्बनपक्ष का चित्रण करने में अधिक रुचि ली है। यशोधरचरित्र में नगर, जनपद, ऋतु, उद्यान आदि के वर्णन अधिकतर प्रकृति का स्वाभाविक, अनलंकृत चित्रण है। उस अलंकृति-प्रधान युग में प्रकृति के आलम्बनपक्ष का यह चित्रण कवि के सहज प्रकृति-प्रेम का परिचायक है । तत्कालीन कवियों में प्रकृति के प्रति यह सहानुभूति बहुत कम दिखाई देती है। प्रभात का प्रस्तुत वर्णन स्वाभाविकता से ओत-प्रोत है । चन्द्रमा की आभा मन्द पड़ गयी है, तारे छिपते जा रहे हैं, कमल खिल गये हैं, उनकी सुगन्ध से भरी बयार चारों ओर चल रही है, अभिसारिकाएँ घरों को लौट रही हैं । लो, सूर्य भी उदित हो गया है।
म्लानं शुभ्रांशुबिम्ब नभसि परिमितास्तारकाः कान्तिहीनाः
प्रोन्मीलत्पद्मसंगात्परिमलसुरभिः सर्वतो वाति वातः।