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जैन संस्कृत महाकाव्य
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आरम्भ और काव्य के अन्त में से आभारपूर्वक स्वीकार किया है। पार्श्वनाथकाव्य की उक्त प्रति ग्यारह इंच लम्बे तथा साढ़े चार इंच चौड़े चालीस पत्रों पर लिखी गयी है । यही प्रति प्रस्तुत विवेचन का आधार है ।
पार्श्वनाथ काव्य का महाकाव्यत्व
पार्श्वनाथ काव्य की परिकल्पना महाकाव्य के रूप में की गयी है । इसमें यद्यपि शास्त्र सम्मत अष्टाधिक सर्ग नहीं हैं तथापि इसका कलेवर महाकाव्योचित विस्तार से रहित नहीं है । आशीर्वादात्मक मंगलाचरण के प्रथम दो पद्यों में क्रमश: 'कमठ' (पूर्वजन्म का पार्श्व का अग्रज) के हठ को चूर करने वाले काव्यनायक पार्श्वनाथ तथा वाग्देवी से कल्याण की कामना की गयी है । पार्श्वप्रभु के पुराण वर्णित चरित के अनुकूल होने के नाते पद्मसुन्दर का कथानक 'इतिहासकथोद्भूत' है । पौराणिक काव्यों के उद्देश्य के अनुसार पार्श्वनाथकाव्य में शान्तरस की प्रधानता है। श्रृंगार, वात्सल्य, अद्भुत तथा वीर रस की, अंगरूप में, निष्पत्ति हुई है । काव्यनायक पार्श्वनाथ के व्यक्तित्व में वे समग्र गुण विद्यमान हैं, साहित्यशास्त्र जिनका अस्तित्व धीरोदात्त नायक में आवश्यक मानता है । इसकी रचना का प्रेरक बिन्दु 'धर्म प्राप्ति' है । पार्श्व के जीवनवृत्त के परिप्रेक्ष्य में जैनदर्शन के सिद्धान्तों का सरल भाषा में विश्लेषण करके उन्हें जनप्रिय बनाना काव्य रचना का उद्देश्य है ।
पद्मसुन्दर ने नगर, प्रभात, दूतप्रेषण, युद्ध आदि के वर्णनों से एक ओर काव्य में जीवन की विविधता का चित्रण करने का प्रयास किया है, दूसरी ओर शास्त्र का पालन किया है । पार्श्वनाथकाव्य की भाषा-शैली में अपेक्षित शालीनता तथा गम्भीरता है । प्रसादगुण तथा विशद अलंकारों से भाषा को प्रौढ एवं कान्तिमती बनाने में कवि की विशेष तत्परता है ।
पार्श्वनाथ काव्य का स्वरूप
विजय के पार्श्वचरित की अपेक्षा प्रस्तुत काव्य में पौराणिक तत्त्व यद्यपि कुछ कम हैं तथापि इसकी आधारभूमि की पौराणिकता असन्दिग्ध है । पार्श्वनाथकाव्य के कथानक का स्रोत जैन पुराण हैं । पौराणिक काव्यों की प्रकृति के अनुरूप इसमें भवान्तरों का विस्तृत वर्णन किया गया है । काव्य में जन्म-जन्मान्तरों के वर्णनों के अनुपात का अनुमान इसीसे किया जा सकता है कि प्रथम दो सर्ग आद्योपान्त इन्हीं वर्णनों से आच्छन्न हैं । प्रथम सर्ग में तो पार्श्वप्रभु के पूरे सात जन्मों का वर्णन किया गया है । काव्य में मर्त्य तथा अमर्त्य का इतना प्रचुर तथा प्रबल सहयोग है कि गेटे के शब्दों में इसे सही अर्थ में, 'धरा तथा आकाश का मिलन' कहा जा सकता है । पार्श्वप्रभु के गभ में अवतरण से लेकर उनकी निर्वाण-पूजा तक समस्त अनुष्ठानों
४. वही, ७.७०.
५. सद्यः पल्लवय प्रसादविशदालंकारसारत्विषः । वही, १.२