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यशोधरचरित्र : पद्मनाभकायस्थ
एताः शय्यानिशांताद् गुरुगृहमधुना यान्ति कान्ताः निशान्ते
जातः सूर्योदयोऽयं कृतजनकुशलो देव निद्रां जहीहि ।। ३. १५२ प्रकृति का यही अनलंकृत चित्र उज्जयिनी के हिमवान् पर्वत के वर्णन में देखा जा सकता है । यहाँ कवि ने पर्वत के वृक्षों, निर्झरों, बांसों के झुरमुटों में सांयसांय करती पवन आदि के सहज संकेत से पर्वतीय वातावरण को मुखर किया है । अथास्त्यवतिदेशस्य मध्यस्थो हिमवान् गिरिः । जम्बू नारंगपुंनागलवलीवनसुन्दरः ॥ ५.२१ केरलीचिकुराकारवहद्बहल निर्झरः । कीचकान्तर्व हद्वातस्वरनिर्जितवेणुकः ।। ५.२४ नानाधातुभिरापूर्णः सरलागुरुवासितः ।
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मणीनामाकरः श्रेयान् रुचिरश्चमरीचयैः ।। ५.२६
पद्मनाभ ने प्रकृति पर चेतना के आरोप के द्वारा उसका मानवीकरण भी किया है। प्रकृति का मानवीकरण उसे मानव के निकट लाने का साहित्यिक प्रयास है । सूर्यास्त के वर्णन में आकाश को नायिका का रूप दिया गया है, जो अपने पति (सूर्य) की मृत्यु पर, विधवा की भाँति बाल फैलाकर करुण क्रन्दन कर रही है । अस्तंगते स्वामिनि तिग्मरश्मौ विक्षिप्तकेशेव घनांधकारैः । नक्षत्रनेत्राम्बुकणरयोगदुःखादियं द्यु प्रमदा रुरोद ॥ ३.६४
चन्द्रमा पर यहाँ सिंह की चेष्टाएँ आरोपित की के नखों से अन्धकार रूपी हाथी को फाड़ कर तारों के वन में घूम रहा है ।
गयी हैं । वह अपनी चन्द्रिका मोती बिखेरता हुआ गगन के
ज्योत्स्नानखः ध्वान्त करीन्द्रवृन्दं भित्त्वा किरंस्तारकमौक्तिकानि । नभोवनतानि विगाहमानः समाविरासीद् विधुपंचवक्त्रः ॥ ३.६६
सौन्दर्यचित्रण
प्राकृतिक सौन्दर्य की भाँति मानव - सौन्दर्य ने भी पद्मनाभ को आकृष्ट किया है। उसने एक ओर नखशिखप्रणाली को वर्ण्य पात्रों के अंगों-प्रत्यंगों के सौन्दर्य की अभिव्यक्ति का आधार बनाया है, दूसरी ओर उनके शारीरिक सौन्दर्य का सामान्य वर्णन करके मानव-भन पर पड़ने वाले प्रभाव को रेखांकित किया है । राजकुमारी अमृतमती का चित्रण नखशिखविधि से किया गया है जिसके अन्तर्गत कवि ने उसके उरोजों, गति तथा मुख का सौन्दर्य उत्प्रेक्षा, रूपक आदि अलंकारों के आधार पर अंकित किया है (२.७०,७१,७३) । उसी के सौन्दर्य-चित्रण में अन्यत्र उपर्युक्त दोनों शैलियों का मिश्रण है । यहाँ उसके रूप का सामान्य वर्णन है किन्तु उसके केशों की after और अधर की मधुरता का विशेष उल्लेख किया गया है ।
लावण्यशाला किमियं विधातुः किं मानसाकर्षण सिद्धिरेषा |
ff कामजीवातुरियं कृशांगी कि कौमुदी वा जनलोचनस्य ॥ ३.५८