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श्रीधरचरित : माणिक्यसुन्दरसूरि
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इनमें नायक तथा अन्य पात्र पहले विषयों का जी भर कर भोग करते हैं किन्तु, कालान्तर में, किसी घटना-विशेष के कारण विरक्ति का उदय होने से वे भोगविलास आदि समूची आसक्तियों को छोड़कर संयमव्रत ग्रहण करते हैं और उस सोपान से मुक्ति की अट्टालिका में प्रवेश करते हैं। श्रीधरचरित में शृंगार की यही स्थिति है और इसी अर्थ में वह काव्य का अंगी रस है । माणिक्यसुन्दर शृंगार के विविध पक्षों तथा स्थितियों का चित्रण करने में निष्णात हैं। स्वयम्बर में आगत राजाओं की कामजन्य चेष्टाओं के वर्णन में उनके सात्त्विक भावों का मनोरम वर्णन किया गया है किन्तु उनका सर्वोत्तम निरूपण सुलोचना की उस स्थिति के चित्रण में हुआ है, जब वह विजयचन्द्र को वरमाला पहिना कर आनन्दातिरेक से अभिभूत हो जाती है।।
सा रोमालिस्तम्भे तुंगस्तनकलश उरसि भवने निवेश्य यमस्मरत् तं ध्यानादध्यक्षीभूतं विजयनृपतिकुसुमविशिखं समीक्ष्य सुलोचना। स्वेदाम्भोभिः क्लुप्तस्नानेव विमलवरतरवरणरजा प्रमदाकुला चंचद्रोमांचा तं च द्राक् समुचितमिदमिति चतुरः शशंस न तां च कः ॥ ७.७७
उनकी विवाहोपरान्त कामकेलियों के मधुर चित्रण में सम्भोग-शृंगार का हृदयग्राही चित्रण है। विजयचन्द्र, परिवर्तित ऋतुओं के अनुसार, सुलोचना के साथ भोग-विलास में मग्न रहता है।
भुजोपपोडं भेजे तां व्यक्तरागधरामिव । शीतकाले स कालेयपंकालेपपरां भृशम् ॥६.१२ तपत्तौ वर्तुलव्यक्तमुक्ताप्रलम्बशीतले। शिश्येऽसौ चन्द्रशालासु तस्याः काम्यकुचस्थले ॥ ६.१३ स नाभीदघ्ननीरासु दीर्घाक्षीं दीर्घिकास तां ।
कदापि रमयामास मराल इव वारलाम् ॥ ६.१४
अन्य अधिकांश जैन कवियों की तरह माणिक्यसुन्दर का यह शृंगार-चित्रण केवल औपचारिकता का निर्वाह प्रतीत होता है क्योंकि उसने काव्य में जी भरकर नारी की निन्दा की है। शृंगार की आसक्ति तथा जैन साधु की विरक्ति में पूर्ण तादात्म्य सम्भव नहीं है। फलतः माणिक्यसुन्दर की दृष्टि में नारी मलमूत्र के पात्र के अतिरिक्त कुछ नहीं है। इसीलिये कामकेलि में आचूड़ निमग्न विजयचन्द्र भी विषयभोग के पश्चात्ताप के द्वारा शृंगार की निस्सारता प्रमाणित करता है।
श्रीधरचरित में वीररस की भी कुछ ऐसी ही स्थिति है । कश्मीरनरेश प्रताप २२. पुरीषमूत्रमूषासु योषासु जडताभृतः । __ मुह्यन्ति मोहनव्यग्राः महामोहविमोहिताः ॥ श्रीधरचरित, ६.१४४ २३. वही, ६.१६८-१७३