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श्रीधरचरित : माणिक्यसुन्दरसूरि
३७७ अक्षः केलिकृता कामकितवेन समं कथम् ? नारीनितम्बफलके हा मया जन्म हारितम् ॥६.१७० स्पृहयामि ततो नाहं बाह्यराज्याय सर्वथा। अथामी मेनिरे चित्त विषया विषवन्मया ॥६.१७६ भवाम्बुधेस्तितीर्षा मे वुवूर्षा संयमश्रियः । मारमोहादिशत्रूणां संजिहीर्षा च साम्प्रतम् ॥६.१८० ध्वजांचलाब्धिकल्लोलचपलागोलवच्चलः । असार एष व्यापारः सारो धर्मश्च निश्चलः ॥ ६.१६० तपःखड्गधरो जित्वा स्मरारि सति यौवने।
संयम संजिघृक्षामि प्रवयाः किं करिष्यति ॥ ६.१६१
नवें सर्ग में, कामासक्त विजयचन्द्र को भोगविलास से विरत करने के लिये संयमश्री दिव्यनारी के रूप में प्रकट होती हैं। तेजपिण्ड से प्रादुर्भूत उस गौरांगी युवती के चित्रण में अद्भुत रस की निष्पत्ति हुई है।
जगर्ज गगनं कर्णकटुभिजितस्ततः । नेत्रे निमीलयन्नस्य तेजःपिण्डः पपात च ॥६.८२ कान्तिविद्युल्लताभ्रान्तिकारिणी तारहारिणीम् । चन्द्रास्यां शुभ्रशृंगारां चलत्कंकणकुण्डलाम् ॥ ६.८४ शुकहस्तां श्रितस्कन्धमरालद्वयशालिनीम् ।
कांचित् कांचनगौरी स वशां वीक्ष्य विसिष्मिये ॥६.८५
श्रीधर चरित में करुण२५, रौद्र तथा भयानक रसों का भी भव्य परिपाक हुआ है, जो इन रसों के चित्रण में कवि की कुशलता का परिचायक है। प्रकृतिचित्रण
श्रीधरचरित के फलक पर प्रकृतिचित्रण को अधिक स्थान नहीं मिला है। प्रथम पांच तथा अन्तिम तीन सर्गों में तो प्रकृति की एक भी झलक दिखाई नहीं देती । अन्तिम दो सर्ग जिस कोटि की सामग्री से भरपूर हैं, उसमें प्रकृतिचित्रण जैसी सौन्दर्याभिरुचि की अभिव्यक्ति का अवकाश ही नहीं है। छठे सर्ग में कवि ने अष्टापद, सूर्योदय तथा रत्नपुर के ललित वर्णनों से महाकाव्य के इस अभाव की पूर्ति करने की चेष्टा की है । प्रतिष्ठित परम्परा के अनुरूप माणिक्यसुन्दर ने प्रकृतिचित्रण में बहुधा कलात्मक शैली का प्रयोग किया है। श्रीधरचरित में प्रकृति के सहज पक्ष के
२५. वही, ८.१०४-१०६ २६. वही, ८.१२७ २७. वही, ८.२४१-२४३