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श्रीधरचरित : माणिक्यसुन्दरसूरि
पति का स्वागत कर रही हैं ।
समागतं वीक्ष्य विदूरदेशादिनं दिनादौ किल पद्मिनीमिः । सौरभ्यलीन भ्रमरालिदम्भादानंजिरे पंकजलोचनाभिः ॥ ६.६१
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इस संक्षिप्त प्रकृतिवर्णन से स्पष्ट है कि प्राकृतिक सौन्दर्य का अंकन करने में माणिक्यसुन्दर सिद्धहस्त है । काव्य का प्रकृतिचित्रण उसकी पर्यवेक्षण शक्ति तथा प्रकृति-प्रेम का प्रतीक है ।
सौन्दर्यवर्णन
माणिक्यसुन्दर की तूलिका ने मानव-सौन्दर्य के भी अभिराम चित्र अंकित किये हैं, जो प्रकृतिचित्रण की भाँति, उसकी कलात्मक अभिरुचि तथा सौन्दर्य-बोध के द्योतक हैं । श्रीधरचरित में नारी सौन्दर्य का चित्रण किया गया है । कवि ने परम्परागत नखशिखप्रणाली से नारी के अंगों-प्रत्यंगों का चित्रण नहीं किया है। afree fafवध अलंकारों का आश्रय लेकर उसके सौन्दर्य के समग्र प्रभाव की अभिव्यक्ति की है । इस रीति से वर्णित कलावती का सौन्दर्य रम्भा और गौरी के लावण्य को भी मात करता है ।
शशिमण्डलीव सकला सकलकलाकेलिकेलिगृहममला ।
कमला हरेरिव कला कलावती तस्य कान्तासीत् ॥२.११
भीतो हृदि स कलंक कि नो बिर्भात शशी ।
वीक्ष्य यदाननकमलं न न कमलं कलयति स्म दुर्गजलम् ॥२.१४
यद्रूपेऽनुरूपे निरूपिते बोभवीति स्म ।
रम्भारं भारहिता गौरी गौरी रमाप्यरमा ॥ २.१५
चरित्र चित्रण
श्रीधरचरित में अनेक देवी तथा मानवी पात्रों का जमघट है किन्तु उनमें से अधिकतर क्षण भर के लिये काव्य के मंच पर आते हैं और दृष्टि से ओझल हो जाते हैं । पिता-पुत्र जयचन्द्र तथा विजयचन्द्र के अतिरिक्त अन्य किसी भी पात्र के चरित्र का विकास नहीं हो सका है ।
जयचन्द्र
जयचन्द्र मंगलपुर का कुशल तथा न्यायप्रिय शासक है । न्यायपरायणता के कारण उसे प्रजा का अविचल विश्वास प्राप्त है । उसके प्रताप के सूर्य के समक्ष शत्रु दीपक की भाँति निष्प्रभ हैं । जयचन्द्र धर्मपरायण व्यक्ति है । जिनभक्ति की कलहंसी ग्रीष्म में भी उसके हृदय-सरोवर में यथावत् क्रीड़ा करती है । उसकी धर्मनिष्ठा से प्रसन्न होकर सिद्धपुरुष स्वयं उसके सभाभवन में आकर उसे एक गुटिका प्रदान करता है, जिसके प्रभाव से उसे पुत्र की प्राप्ति होती है । सिद्धपुरुष का वह