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जैन संस्कृत महाकाव्य.
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सूचियों में एक समान हैं। दोनों काव्यों में सर्वप्रथम मगधराज का परिचय दिया गया है । इस वर्णन के अन्तर्गत दोनों काव्यों में, कई स्थलों पर, भावसादृश्य भी दृष्टिगत होता है । शूरसेन देश के अधिपति के विषय में कालिदास का कथन है
अध्यास्य चाम्भः पृषतोक्षितानि शैलेयगन्धीनि शिलातलानि ।
कलापिनां प्रावृषि पश्य नृत्यं कान्तासु गोवर्धनकन्दरासु ॥ रघु० ६.५१ द्वारिकाधीश का वर्णन करते समय माणिक्यसुन्दर ने कालिदास के उपर्युक्त भाव को ग्रहण किया है ।
किन्नरीवृन्दगांधर्वगीर्बन्धुरे नित्यपर्जन्यतूर्यरवाडम्बरे ।
afeनृत्यं यदि प्रेक्षितं रैवते चित्रमेतं भज द्वारकेशं ततः ॥ श्रीधर०, ७.४३ कालिदास इन्दुमती को महेन्द्राद्रि के शासक को चुनकर उनके साथ सागरतट पर विहार करने का प्रलोभन देते हैं तो यशोधरा अपनी सखी को कोसलनरेश का वरण करके सरयू के तीरवर्ती कानन का उपभोग करने को प्रेरित करती है । अनेन सार्धं विहराम्बुराशेस्तीरेषु तालीवनमर्मरेषु ।
द्वीपान्तरानीतल वंगपुष्पैरपाकृतस्वेदलवा मरुद्भिः ॥ रघुवंश, ६.५७ अभिरतिर्यदि ते सरयूजलप्लवनशाड्वलकाननकेलिषु । क्षितिपतेस्तदमुष्य भव प्रिया सुररिपोरिव गौरि ! हरिप्रिया ॥
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श्रीधर०, ७.३६ परित्यक्त नरेशों की म्लानता का चित्रण दोनों काव्यों में संचारिणी दीपशिखा के उपमान द्वारा किया गया है" । दोनों कवियों ने स्वयम्वर के पश्चात् विजयी राजकुमार तथा हताश राजाओं के युद्ध का वर्णन किया है । यह ज्ञातव्य है कि इन्दुमती - स्वयम्वर के वर्णन पर आधारित होता हुआ भी माणिक्यसुन्दर का स्वयम्वर-वर्णन उसका अन्धानुकरण नहीं है बल्कि मानव हृदय के सूक्ष्म चित्रण, कमनीय कल्पना तथा भाषा-माधुर्य के कारण वह सजीवता तथा रोचकता से ओतप्रोत है । इस कोटि के वर्णनों में सुलोचना - स्वयम्वर का निश्चित स्थान है ।
रसयोजना
रसात्मकता की दृष्टि से श्रीधरचरित आलोच्य युग के महाकाव्यों में गौरव --
रसों की अभिव्यक्ति हुई है,
मय पद पर प्रतिष्ठित है । काव्य में प्रायः सभी प्रमुख जो पाठक को वास्तव में प्रपानक रस का आस्वादन कराते हैं । श्रीधरचरित का अंगीरस शृंगार है । शान्तरसपर्यवसायी काव्य में शृंगार की प्रधानता स्वीकार करने में हिचक हो सकती है, किन्तु जैन पौराणिक महाकाव्यों की प्रवृत्ति कुछ ऐसी है कि २१. रघुवंश, ६.६७ तथा श्रीधरचरित, ७.६२