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विजयप्रशस्तिमहाकाव्य : हेमविजयगणि
३५६ दीक्षित जीवन में विजयसेन आर्हत धर्म के सच्चे सन्देशवाहक हैं। वे प्रतिष्ठा, तीर्थयात्रा, धर्मोपदेश आदि से जैन धर्म की प्रभावना करते हैं। उनके व्यक्तित्व की पवित्रता तथा उपदेशों की निर्मलता से अकबर जैसे अन्यधर्मी सम्राट के मानस में भी करुणा का उद्रेक होता है जिसके फलस्वरूप वह राज्य के समस्त बन्दियों की मुक्त कर देता है और निस्सन्तान व्यक्ति के सम्पत्ति-सम्बन्धी क्रूर नियम को समाप्त कर देता है। फिरंगियों द्वारा उन्हें धर्म-गोष्ठी में निमन्त्रित करना उनकी चारित्रिक उदात्तता तथा धार्मिक उपलब्धि का द्योतक है। हीरविजय
___ काव्यनायक विजयसेन के गुरु आचार्य हीरविजयसूरि निस्पृहता तथा त्याग की जीवन्त प्रतिमा हैं। कुलागत वैभव तथा अतुल समृद्धि को तृणवत् त्याग कर वे प्रव्रज्या का कण्टीला मार्ग ग्रहण करते हैं । हीरविजय को प्रतिभा का अद्भुत वरदान प्राप्त है। उनकी प्रतिभा की अभिव्यक्ति शास्त्रशीलन तथा मच्छ के कुशल संचालन में हुई है। उन्होंने शास्त्ररस का इस आतुरता से पान किया जैसे ग्रीष्म से सन्तप्त धरती वर्षा की प्रथम बौछार को तत्काल पी जाती है ।
सोऽप्रमत्तः पपौ सर्व शास्त्रं स्वं स्वगुरोः सुधीः ।
ग्रीष्मतप्तो भुवां भाग इवाब्दान्नियतत् पयः ॥१४.६८
उनकी विद्वत्ता, चारित्रिक उदात्तता एवं धार्मिक उपलब्धियों की ख्याति सम्राट अकबर तक पहुँचती है। वह यतिराज को धर्मगोष्ठी के लिये निमन्त्रित करता है तथा परमात्मा के स्वरूप के विषय में उनके साथ गम्भीर चर्चा करता है । सम्राट हीरसूरि की तर्क-प्रणाली तथा व्यक्तित्व की गम्भीरता तथा शालीनता से इतना प्रभावित हुआ कि उसने, जैन साधु की इच्छा के अनुसार, वर्ष में कुछ दिनों के लिये जीव-हत्या बन्द कर दी, बन्दियों को मुक्त कर दिया, जज़िया समाप्त कर दिया और हीरविजय को शत्रुजयतीर्थ का अधिकार प्रदान किया। व्यक्तिगत जीवन में भी अकबर को अहिंसा की ओर प्रवृत्त करना हीरविजय जैसे वीतराग तपस्वी के लिये ही सम्भव था।
हीरविजय के व्यक्तित्व की समूची उदात्तता उनकी अपरिग्रह भावना में प्रतिभासित होती है। उन्हें जीवन में कुछ भी ग्राह्य नहीं है। वे अकबर के सर्वथा निर्दोष उपहार --- ग्रंथसंग्रह -को भी मर्यादाविरोधी मानकर अस्वीकार कर देते हैं। सम्राट् के अत्यधिक आग्रह से जब वे ग्रंथ ग्रहण करते हैं, तो उन्हें सार्वजनिक प्रयोग के लिए आगरा के एक पुस्तकालय में रख देते हैं । अकबर जैन साधु की निरीहता से गद्गद् हो जाता है।
नृपो विशेषाद् मुमुदे निरीहतां निरीक्ष्य सूरेरतिशायिनीमिमाम् ॥ ६.४१