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जैन संस्कृत महाकाव्य
लाप करने , नारीहरण', पक्षी को पत्रवाहक बनाने'; मनुष्य के भूतों से साक्षात् बातचीत करने तथा पक्षियों के पुनः वास्तविक आकार में प्रकट होने में लोककथाओं का प्रभाव स्पष्ट है । इष्टसिद्धि के लिये मन्त्र साधना करने तथा नरबलि देने और संयमश्री के दिव्य नारी के रूप में अवतीर्ण होने आदि में भी लोककथाओं की उपजीव्यता लक्षित होती है। पुराणों की भाँति प्रस्तुत काव्य में भावी घटनाओं का वर्णन किया गया है। अष्टम सर्ग में यज्ञों के पुनः प्रचलित होने की भविष्यवाणी के अन्तर्गत सुलसा तथा याज्ञवल्क्य का प्रसंग इसका उदाहरण है। इसमें प्रचारवादी धर्मदेशनाओं को व्यापक स्थान मिला है तथा जैन धर्म की सर्व श्रेष्ठता एवं अन्य धर्मों की हीनता का तत्परता से निरूपण किया गया है । श्रीधरचरित की कथा का पर्यवसान शान्त रस में होता है जो पौराणिक काव्यों की मुख्य प्रवृत्ति है। इन पौराणिक तत्त्वों के अतिरिक्त श्रीधरचरित में वर्ण्य विषय तथा वर्णन-शैली में विषमता, भाषा-शैलीगत उदात्तता, तीव्र रसानुभूति, वस्तुव्यापार के मनोज्ञ वर्णन आदि शास्त्रीय काव्य के लक्षण भी विद्यमान हैं जिनके कारण इसे शास्त्रीय काव्य माना जा सकता है । छन्दों को उदाहृत करने से इसकी शास्त्रकाव्यों में गणना करना न्यायोचित होगा। परन्तु पौराणिकता की प्रबलता के कारण इसे पौराणिक काव्यों में स्थान दिया गया है। श्रीधरचरित को पौराणिक काव्य बनाने वाले इसके अन्तिम दो सर्ग हैं। कवि-परिचय तथा रचनाकाल
प्रस्तुत महाकाव्य तथा अपनी अन्य कृतियों में माणिक्यसुन्दर ने विस्तृत आत्मपरिचय दिया है जिससे उनकी गुरु-परम्परा तथा स्थिति-काल के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण सामग्री प्राप्त है। आचार्य चन्द्र की परम्परा में दोषान्धकार के उच्छेत्ता तथा सूर्य के समान तेजस्वी आर्यरक्षित ने विशेष ख्याति अजित की थी। उनके पट्टानुक्रम में मेहतुंगसूरि हुए जो परम वाग्मी, प्रतिष्ठित शास्त्रार्थी, आचार्यों के चूडामणि तथा अंचल गच्छ के साक्षात् मार्तण्ड थे। श्रीधरचरित के रचयिता ने इसी महान्
४. वही, ८.१३०,१३४,१३५,४८६,५०३-५०६,५२५,५३३ ५. पूर्वानुरागभाग जह वज्रदाढः सुलोचनाम् । वही, ५.५५७ ६. अद्राष्टां नभसा यान्तं पत्रिणं पत्रिकामुखम् । वही, ८.१७३ ७. वही, ८.२१६-२१७ ८. पक्षिरूपं परित्यज्य सोऽयं सिद्धि नरोऽभवत् । वही, ८.१७५ तथा ८.५३३ आदि ९. सर्वमेव सुलभं भवेंऽगिनां जैनधर्म इह दुर्लभः पुनः । वही ३.२८ १०. वही, .२३४-३०८ ११. वही, १.६-१०