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जैन संस्कृत महाकाव्य
महाकाव्यसुलभ कुमारजन्म, दूतप्रेषण, युद्ध, प्रभात, सूर्योदय नगर, पर्वत आदि के रोचक वर्णन काव्य में यथास्थान विद्यमान हैं । छठे तथा नवें सर्ग में चित्रकाव्य के द्वारा कवि ने अपना पाण्डित्य प्रदर्शित करते हुए चमत्कृति उत्पन्न करने का प्रयास किया है जिसमें भारवि से प्रचलित इस परम्परा का निर्वाह हुआ है । काव्य का आरम्भ आठ पद्यों के मगलाचरण से हुआ है जिनमें कतिपय तीर्थंकरों, जैनभारती तथा गणधर गौतम की स्तुति की गयी है । श्रीधरचरित की विशेषता यह है कि इसका प्रत्येक सर्ग मंगलाचरण से शुरू होता है । काव्य का शीर्षक पूर्णतया शास्त्रसम्मत तो नहीं है, किन्तु इससे शास्त्र की पूर्ण अवहेला भी नहीं होती । छन्दों के विधान की दृष्टि से श्रीधरचरित निराली रचना है । ज्ञाताज्ञात छन्दों के प्रायोगिक उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए निबद्ध काव्य में शास्त्रीय नियम की परिपालना का प्रश्न ही नहीं है ।
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श्रीधरचरित का कथानक व्यापक अथवा सुसम्बद्ध नहीं है, तथापि इसे यथाशक्य अन्वितिपूर्ण बनाने के लिए, इसमें, शास्त्रविहित पाँच नाट्यमन्धियों का विनि-योग करने की चेष्टा की गयी है । द्वितीय सर्ग से तृतीय सर्ग तक सिद्धपुरुष के राजप्रासाद में अवतीर्ण होने तथा उसके द्वारा सन्तानहीन जयचन्द्र को पुत्रदायिनी गुटिका देने के वर्णन में मुखसंधि है क्योंकि यहाँ कथावस्तु के बीज का वपन हुआ है । चतुर्थ सर्ग से पंचम सर्ग तक विजयचन्द्र के जन्म, उद्धत अश्व के उसे बीहड़ वन में ले जाने, वहाँ उसके असहाय भटकने, हस्तिनापुर का राज्य प्राप्त करने तथा पिता के निमन्त्रण पर उसके राजधानी लौटने के प्रसंगों में बीज का कुछ लक्ष्य तथा कुछ अलक्ष्य रूप में विकास होता है, अतः यहाँ प्रतिमुखसन्धि है । छठे सर्ग से आठवें सर्ग के प्रारम्भिक अंश तक एक ओर सुलोचना के साथ विवाह होने से विजयचन्द्र के हृदय में आशा का उद्रेक होता है, दूसरी ओर कश्मीरराज प्रताप से युद्ध होने के कारण चिन्ता उत्पन्न होती है । प्रसन्नता और चिन्ता के इस द्वन्द्व में यहाँ गर्भसन्धि का निर्वाह हुआ है । इसी विशालकाय सर्ग में सुलोचना के अपहरण तथा अनेक उत्थान-पतन और चित्र-विचित्र घटनाओं के पश्चात् वज्रदाढ को परास्त करके उसकी पुनःप्राप्ति तथा नवें सर्ग के आरम्भिक भाग में उसके साथ विजयचन्द्र के अविराम विषयोपभोगों के वर्ण त में प्रकारान्तर से फल प्राप्ति की पृष्ठभूमि के अधिक निश्चित होने से विमर्शसन्धि मानी जा सकती है। नवम सर्ग के शेष भाग में निर्बंहणसन्धि की योजना हुई है । यहाँ विजयचन्द्र तेजपिण्ड नारी के यथार्थ स्वरूप ज्ञान से जगत् की अनित्यता तथा भोगों की निस्सारता से त्रस्त होकर प्रव्रज्या ग्रहण करता है और अन्ततः शिवत्व प्राप्त करता है । यही श्रीधरचरित का फलागम है । मनोरम काव्यकला, गम्भीर रसव्यंजना, महाकाव्योचित प्रौढ भाषा, विद्वत्ता प्रदर्शन की प्रवृत्ति आदि गुण उक्त परम्परागत लक्षणों को परिपुष्ट कर श्रीधरचरित को सम्मानित पद पर आरूढ़ करते हैं ।