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१९. श्रीधरचरित : माणिक्यसुन्दरसूरि
अंचलगच्छ के प्रख्यात आचार्य तथा प्रतिभावान् कवि माणिक्यसुन्दरसूरि का श्रीधरचरित' विवेच्य युग का अनूठा महाकाव्य है। इसके नौ माणिक्यांक सर्गों में मंगलपुर-नरेश जयचन्द्र के पुत्र विजयचन्द्र का जीवनचरित, पौराणिक तथा रोमांचक परिवेश में, निबद्ध है । विजयचन्द्र पूर्वजन्म का श्रीधर है। काव्य का शीर्षक उसके भवान्तर के इस नाम पर आधारित है । इस दृष्टि से यह काव्य के प्रतिपादित विषय की समग्रता को ध्वनित करने में समर्थ नहीं है। कवि का उद्देश्य चरित-निरूपण के साथ संस्कृत छन्दशास्त्र के अपने असंदिग्ध पाण्डित्य तथा उसे यथेष्ट रूप से उदाहृत करने की क्षमता की प्रतिष्ठा करना है। इसीलिए काव्य में वर्णवृत्तों तथा मात्रावृत्तों के ऐसे भेदों-प्रभेदों तथा कतिपय अज्ञात अथवा अल्पज्ञात छन्दों का प्रयोग किया गया है, जो साहित्य में अन्यत्र शायद ही प्रयुक्त हुए हों । छन्दशास्त्र के प्रायोगिक उदाहरण प्रस्तुत करने के कारण श्रीधरचरित शास्त्रकाव्य का स्पर्श करता है; किन्तु माणिक्यसुन्दर का यह लक्ष्य, शास्त्र अथवा नानार्थक काव्यों की भाँति, काव्य के लिए घातक नहीं है क्योंकि उसकी काव्यप्रतिभा को छन्दों के परकोटे में भी स्वतंत्र विहार के लिए विशाल गगन उपलब्ध है। श्रीधरचरित का महाकाव्यत्व
श्रीधरचरित की रचना में महाकाव्य के स्वरूपविधायक सभी स्थूलास्थूल तत्त्वों का पालन किया गया है । इसका कथानक 'प्रख्यात' है । नायक धीरोदात्त गुणों से सम्पन्न राजवंशोत्पन्न कुमार है । श्रीधरचरित का अंगी रस शृंगार माना जाएगा यद्यपि काव्य का पर्यवसान शान्तरस में होता है। वीर, अद्भुत, भयानक, रौद्र आदि इसकी रसवत्ता को सघन बनाने में, गौण रूप से, सहायक हैं। काव्य का उद्देश्य 'मोक्ष' है । दैहिक भोगों में लिप्त विजयचन्द्र केवलज्ञानी मुनि जयन्त की धर्म-देशना से राज्यादि समस्त सांसारिक विषयों को त्याग कर परम पद को प्राप्त होता है।' १. सम्पादक : मुनि ज्ञानविजय, श्रीचारित्रस्मारकग्रन्थमाला, ४८, अहमदाबाद,
सम्वत् २००७ २. पूर्वे जन्मनि भूपतिर्भुवि बभौ नाम्ना किल श्रीधर
स्तार्तीयकभवे स एव विजयश्चन्द्रोत्तरोऽभून्नृपः । श्रीधरचरित १.३१ ३. चिरं सौख्यं भेजे शिवपदगतः सम्मदमयम् । वही, ६.२४६