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जैन संस्कृत महाकाव्य
कमा
- कमा काव्यनायक का पिता है। वह मुख्यतः धामिक व्यक्ति है, जिनेन्द्र के चरणकमलों का भ्रमर । उसके संयत सेवन के कारण अर्थ और काम भी उसके लिये धर्ममय बन गये हैं (१.४८)। वह धनाढ्य व्यापारी है, किन्तु उसके लिये धन की सार्थकता दान द्वारा पुण्यार्जन में है। इसीलिये धनवत्ता तथा उदारता, परस्पर विरोधी होती हुई भी, उसके पास एक-साथ रहती हैं।
देवों तथा यतियों के प्रति उसकी गहन श्रद्धा है। जिनभक्ति, यति-प्रणति तथा सुपात्रदान-ये तीनों गुण उसमें एक-साथ विद्यमान हैं। सचमुच उसमें असंख्य गुण ऐसे प्रविष्ट हो गये हैं, जैसे अनगिन नदियां सागर में लीन हो जाती हैं (१.५२)। वह कर्ण के समान दानी तथा कात्तिकेय की भाँति सच्चरित्र है (१.५०)। समाजचित्रण
विजयप्रशस्ति महाकाव्य से तत्कालीन समाज की कतिपय गतिविधियों तथा विश्वासों का आभास मिलता है, जो, सीमित अर्थ में, कवि की संवेदनशीलता का द्योतक है।
पुत्रजन्म सदैव की भाँति हर्षोल्लास का अवसर था । धनाढ्य लोग दान-मान से पुत्रजन्म का अभिनन्दन करते थे। कमा ने जयसिंह के जन्म के समय याचकों को इतना दान दिया कि वह साक्षात् कल्पवृक्ष प्रतीत होता था। पुत्र को पाठशाला में प्रविष्ट कराने से पूर्व धनवान् पिता भव्य उत्सव आयोजित करता था। नया विद्यार्थी सर्वप्रथम पाठशाला में वाग्देवी की अर्चना करता था क्योंकि उसकी कृपा के बिना विद्या-प्राप्ति सम्भव नहीं है। वह गुरुजन तथा सहपाठियों को भी यथोचित उपहार देता था, जो गुरु के प्रति उसकी श्रद्धा तथा छात्र बन्धुओं के प्रति उसके सौहार्द के प्रतीक थे। . तत्कालीन समाज में स्वप्नों तथा शकुनों पर अटूट विश्वास था। सूर्योदय के समय देखा गया स्वप्न शुभ फल का दायक माना जाता था । शुभ शकुन अक्षय क्षेम के पूर्वसूचक थे (क्षेमस्य चिह्नः शकुनश्च शोभनः-७.४६) । जयविमल के प्रस्थान तथा पाटन में प्रवेश के समय अनेक शकुन हुए थे। बैल की गर्जना, दर्पण, दधि, पकवान से भरा बर्तन, सधवा नारी का मिलना सुखद समझा ५. पुंरूप एष त्रिदशद्रुमस्तैमेंने यथा भूवलयावतीर्णः । वही, २.३६ ६. यचिता कल्पलतेव दत्त
सद्यः सतां वांछितमर्थमेषा ॥ वही २.८८ ७. गुर्वी गुरुः प्रापदपापदृग मुदं दृष्ट्वा शुभं स्वप्नमिवोदये रवेः । वही १०.६६