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विजयप्रशस्ति महाकाव्य : हेमविजयगणि
जाता था ।
दर्शन
काव्य में किसी दार्शनिक सिद्धान्त का प्रतिपादन नहीं है। मुगल सम्राट् अकबर की सभा में धर्मचर्चा के अन्तर्गत परमात्मा के स्वरूप के विषय में विजयसेन जैन धर्म की मान्यता का निरूपण करते हैं । जैन दर्शन में परमात्मा करुणा से परिपूर्ण, रागद्वेष से रहित, त्रिकालज्ञ तथा प्रमाणज्ञेय है । वह अजन्मा, अशरीरी, अच्छेद्य, अभेद्य अव्यय, चिदात्मा, अचिन्त्य स्वरूप तथा अनघ है ( ७.१५१-७४) । जिस परमात्मा को शैव शिव कहते हैं, वेदान्ती ब्रह्म, बौद्ध बुद्ध, मीमांसक कर्म, नैयायिक कर्त्ता, जैन उसी को अर्हतु कहते हैं । जैन दर्शन में परमात्मा को दो प्रकार का माना गया है । प्रथम कोटि का परमात्मा समवसरण में स्थित केवलज्ञानी है । वह साकार, नाना अतिशयों से युक्त तथा गौरवपूर्ण है ।
तत्राद्यः सोऽस्ति समवसरणं शरणं श्रियाम् ।
सुरासुरनरश्रेणिसेवितांघ्रिद्वयः स्थितः ॥ १२.१५०
दूसरी कोटि का परमात्मा निराकार, अनादि, अजन्मा, मुक्तात्मा तथा
चिन्मय है ।
भाषा
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सदानादिमजन्मानं मुक्तात्मानं च चिन्मयम् ।
द्वितीयमद्वितीयं तं वदामः परमेश्वरम् ।। १२.२११
विजय का मुख्य उद्देश्य स्वधर्म की प्रभावना करना है । इसके लिये उसने काव्य का जो माध्यम अपनाया है, उसे बोधगम्य बनाने के लिये कवि ने आद्योपान्त सरल एवं सुबोध भाषा का प्रयोग किया है। उसके पार्श्वनाथचरित में भी भाषा की यही प्रांजलता दृष्टिगत होती है । विजयप्रशस्ति की भाषा की सुगमता में ऐसा परिष्कार है, जो इसके नीरस इतिवृत्त में रोचकता बनाए रखता है। टीकाकार गुणविजय ने कवि के जिस वाग्लालित्य की प्रशंसा की है, वह इसी भाषात्मक परिमार्जन का दूसरा नाम है । वस्तुतः भाषा के इस सौष्ठव ने ही काव्य को अपठनीय बनने से बचाया है ।
विजयप्रशस्ति में विविध स्थितियों अथवा मानसिक द्वन्द्वों का चित्रण करने का कोई अवकाश नहीं है । इसीलिये इसमें भाषा की उस विविधता का अभाव है, जो महाकाव्य की महार्घ विशेषता है । काव्य में आद्यन्त एक समान भाषा प्रयुक्त हुई है । प्रसाद से परिपूर्ण होने के कारण उसमें लालित्य तथा प्रांजलता है । उसमें प्रौढ़ता की भी कमी नहीं है ।
काव्य में अधिकतर प्रसादगुण सम्पन्न भाषा का प्रयोग किया गया है । उसमें दीर्घ समासों तथा क्लिष्ट पदावली का अभाव है । पुत्रजन्म से आनन्दित