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जैन संस्कृत महाकाव्य
होकर कमा वैभव का कोश लुटा देता है। उसके दान के वर्णन की भाषा सरलता तथा प्रांजलता से ओतप्रोत है। गृहशोभा के वर्णन की भाषा में भी यही गुण विद्यमान है।
आकर्ण्य कर्णोत्सवमात्मजन्मजन्मातिशर्माथ मेहभ्यमुख्यः। हर्ष स लेभे प्रसभं प्रबह बीव गारवमम्बुदस्य ॥ २.३४ द्वाःपाश्वयोस्तस्य गृहस्य रम्भास्तम्भौ व्यभातां नवपर्णपूणौ ।
धम्मिल्लफुल्लोत्पलशालिमौली सरस्वतीसिन्धुसुते किमेते ॥ २.४२
हेमविजय विविध भावों को अनुकूल पदावली में अभिव्यक्त करने में समर्थ है, इसका आभास आचार्य हीरविजय के निधन पर विजयसेन के विलाप के प्रसंग में मिलता है। यहाँ समासहीन तथा कातर पदावली के द्वारा शोक की समर्थ अभिव्यक्ति की गयी है।
ममाभवद् या भगवंस्त्वदंघ्रिसरोजयोः श्रीः पुरतः स्थितस्य । त्वदाननन्यस्तविलोचनस्य सुदुर्लभा साथ नभोलतेव ॥१४.४६ त्वयि प्रयातेऽस्तमनन्तकान्तौ पयोजिनीभर्तरि भव्यपद्म।
ध्रुवं भवित्री भरतावनीयं कुपाक्षिकोल्लूकतमःप्रसारा ॥ १४.५६ विजयप्रशस्ति में सबसे सरल भाषा संवादों में दृष्टिगत होती है। विजयसेनसूरि तथा सम्राट अकबर के वार्तालाप में भाषा की यही सहजता है ।
अस्ति शस्तं शरीरे वः परिवारे च पेशले । इहागतिकृतमासीद युष्माकं क्षेममध्वनि ॥ १२.११४ क्व सन्ति सकलप्राणिप्रीणनप्रवणाशयाः।
श्रीहीरविजयाः सूरिसिन्धुराः साधुबन्धुराः ॥ १२.११५ विजयप्रशस्ति की भाषा सुबोध तथा परिष्कृत है। काव्य की सुगमता के कारण ही विद्वान् इस पर टीका लिखना अनावश्यक समझते थे।
केचित् सुगमा हैमी कृतिरिति तस्याष्टीका निरर्थेव ॥ अलंकारविधान
ग्रामवधटी की भाँति हेमविजय की कविता अपने स्वाभाविक लावण्य से अलंकृत है। कवि ने उस पर अलंकार लादने की चेष्टा नहीं की है। यह उसका उद्देश्य भी नहीं है। हेमविजय के लिये अलंकार भावाभिव्यक्ति का माध्यम है।।
हेमविजय उपमा के मर्मज्ञ हैं। पार्श्वनाथचरित से भी उपमा के प्रयोग में उनके कौशल का यथेष्ट परिचय मिलता है। वर्ण्य भाव की स्पष्टता के लिये वे मूर्त तथा अमूर्त दोनों प्रकार के उपमानों का समान अधिकार तथा सहजता से प्रयोग कर सकते हैं । लोक से ग्रहण किये गये अप्रस्तुत विशेष रोचक हैं। उपमान ८. टीकाप्रशस्ति, ५७