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जैन संस्कृत महाकाव्य
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करता है। इसका आधार परम्परागत नख शिख प्रणाली है । इसमें कुमार के विभिन्न अंगों के वैशिष्ट्य का निरूपण किया गया है, जो विविध अलंकारों की योजना से और प्रस्फुटित हो गया है ( २.३२-३६ ) । सौन्दर्य-चित्रण के अन्तर्गत कवि ने सहज सौन्दर्य में वृद्धि करने वाले प्रसाधनों तथा आभूषणों का भी काव्य में वर्णन किया है । प्रव्रज्या ग्रहण करने के लिये जाते समय कुमार जयसिंह के भूषणों का वर्णन इस दृष्टि से, उल्लेखनीय है ।
रूपमस्तु सुभगं खलु मा दृग्दोषदूषितमस्य मुखस्य ।
अंजनं न्यधित पौरपुरन्ध्री काचिदस्य दृशि धन्यधियेति ॥ ५.६४
अस्य कुन्दकुमुदेन्द्वनुकारः शोभते स्म हृदि हार उदारः । उल्लसल्लवणिमैकपयोधेः फेनपिण्ड इव पाण्डिमपूर्ण: ।। ५.६७ कुण्डले कनककान्तमणीरुग्मण्डले शिशुमुखे शुशुभाते । राहुभीतिचकितौ रविचन्द्रौ निर्भयं शरणमेनमितौ किम् ? ॥ ५.६८
चरित्रचित्रण
हेमविजय ने जिन पात्रों से सम्बन्धित कथानक को काव्य का विषय बनाया है, वे सुविज्ञात हैं । अन्य अनेक कवि पहले ही उनके चरित पर काव्य-रचना कर चुके थे । अतः हेमविजय ने उन्हें जिस परिवेश से ग्रहण किया, काव्य में उन्हीं रेखाओं की सीमा में प्रस्तुत किया है जिसके फलस्वरूप उनके चरित्र-चित्रण में नवीनता नहीं है ।
विजयसेन.
विजयसेन यद्यपि काव्य के नायक हैं, किन्तु उनका चरित्र हीरविजय के व्यक्तित्व की गरिमा के भार से दब गया है । विजयसेन प्रतिभासम्पन्न नायक हैं। शैशव में ही उनकी प्रतिभा की कुशाग्रता का परिचय मिलता है । वे समस्त विद्याओं को इस प्रकार हृद्गत कर लेते हैं, जैसे दर्पण बिम्ब को ( २.६१ ) । हीरविजय जैसे विद्वान् आचार्य भी इस मेधावी शिष्य को पाकर धन्य हो जाते हैं । वे प्रत्युत्पन्नमति तथा अध्ययनशील व्यक्ति हैं । गुरु हीरविजय के सान्निध्य में उनकी प्रतिभा और परिपक्व हो जाती है | अपनी बहुश्रुतता के कारण विजयसेन सरस्वती के साक्षात् अवतार के रूप में मान्यता प्राप्त करते हैं ।
विनेय एष प्रभुपूज्यपुंगव नेतमां मूर्त्तिमती सरस्वती ॥७.१८
गुरु के प्रति उनके हृदय में असीम श्रद्धा है । वे अनन्य भाव से आचार्य की सेवा करते हैं और तत्परता से उनके आदेशों का पालन करते हैं। गुरु के निधन से उन्हें जो वेदना हुई, उसे उनका हृदय ही जानता है (अलं स एवावगमे तदीये१४.४६) ।