________________
सुमतिसम्भव : सर्वविजयगणि
३४७ शाब्दी-क्रीड़ा उत्तरवर्ती महाकाव्यों में एक रूढ़ि के रूप में प्रतिष्ठित हो गयी। जैन कवि भी इन भाषात्मक कलाबाजियों में पीछे नहीं रहे हैं । सुमतिसम्भव के छठे संर्ग में, पट्रपरम्परा के वर्णन में, कवि ने भाषा के उत्पीडन के द्वारा अपना रचनाकौशल प्रदर्शित किया है । इस सर्ग में उसने कुछ ऐसे पद्यों की रचना की है, जिनमें केवल एक, दो अथवा अवर्गीय वर्णों का ही प्रयोग हुआ है । यह भाषायी जादूगरी काव्य में चमत्कार तो उत्पन्न करती है किन्तु इससे काव्य की बोधगम्यता में अनावश्यक बाधा आती है। टीका के बिना इस चित्रकाव्य के मर्म को समझना प्रौढ़ पण्डितों के लिए भी सम्भव नहीं। सुमतिसम्भव में ऐसे पद्यों की संख्या अधिक नहीं, यह सन्तोष की बात है। कतिपय पद्य यहाँ उद्धृत किए जाते हैं, जिनसे सर्वविजय के भाषाधिकार का आभास मिल सकेगा।
रत्नशेखर के पट्टधर गुरु लक्ष्मीसागर के वर्णन-प्रसंग के निम्नोक्त पद्य में मुख्यतः केवल एक व्यंजन 'त्' प्रयुक्त किया गया है ।
तातंतं ततताताऽति ततो नु ते ततांततम् ।
अतंति ते तं तांतौ तं तोमुतं नूततेतिता ॥ ६.२७ ।
प्रस्तुत पद्य की रचना केवल दो व्यंजनों-द् तथा र् के आधार पर हुई है । इसमें देवसुन्दर सूरि का वर्णन किया है। काव्य में इस कोटि के तीन अन्य पद्य उपलब्ध हैं।
इंदिदरोऽदरोदारादर दारेंदिरोदरे।
अदाददारेदो दारे दुरोदरादिरोदरे ॥ ६.१६
लक्ष्क्षीसागरसूरि के चरित के सन्दर्भ में सबसे अधिक चित्रकाव्यात्मक पद्यों की रचना की गयी है। उपर्युक्त पद्यों के अतिरिक्त, यह पद्य स्पर्श व्यंजनों से पूर्णतया रहित है।
लीलावलयवल्लास्यविलासी लावशाशये।
शशाले यस्य शालोऽसाविलशैलो रसालयः । ६.३१
निम्नोक्त पद्य में दन्न्य व्यंजनों के अतिरिक्त अन्य किसी व्यंजन का प्रयोग नहीं हुआ है।
अनाददानो निंदानं निदानं दाननोदने ।
अनेनो नंदनोऽदीनो नदीननिनदेदवः ॥ ६.४६ अलंकारविधान
किन्तु विद्वत्ता का प्रदर्शन करना कवि को अभीष्ट नहीं है। उसका प्रमुख उद्देश्य जैनाचार्य के गौरवगान के द्वारा धर्म की प्रभावना करना है । इसीलिए सुमतिसम्भव अलंकृति के भार से आक्रान्त नहीं है। काव्य में बहुत कम अलंकारों का प्रयोग हुआ है । जहाँ वे सहज भाव से आए हैं, वहाँ भावाभिव्यक्ति को स्पष्टता मिली