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१८. विजयप्रशस्तिमहाकाव्य : हेमविजयगणि
वर्तमान रूप में विजयप्रशस्तिमहाकाव्य' इक्कीस सर्गों की बृहत्काय कृति है । इसके आरम्भिक सोलह सर्ग ही हेमविजय की लेखनी से प्रसूत हैं, शेष पांच सर्ग उनके सहपाठी के शिष्य गुणविजयगणि की रचना है । इस प्रकार कादम्बरी की भाँति विजयप्रशस्ति द्विकर्तृक रचना है । भूषणभट्ट ने कादम्बरी के उत्तरार्द्ध के द्वारा जहाँ अपने पिता का साहित्यिक तर्पण किया है, वहाँ विजयप्रशस्ति की पूर्ति करके गुणविजय ने पितृतुल्य गुरु की आज्ञा का पालन किया है । लेकिन पांच सर्गों की चन्द्रशाला उसारने के बाद भी इस महल की अपूर्णता में विशेष कमी नहीं आई है ।
विजयप्रशस्ति का प्रतिपाद्य तपागच्छ के प्रभावी आचार्य विजयसेनसूरि का का साधुजीवन है पर जिस रूप में उसे निरूपित किया गया है, उसमें वह हीर - विजय के व्यक्तित्व के प्रखर प्रकाश के सामने मन्द पड़ गया है । हीरसौभाग्य, देवानन्दाभ्युदय, दिग्विजय महाकाव्य आदि धर्माचार्यों के जीवन पर आधारित चरितात्मक काव्यों के विपरीत विजयप्रशस्ति में विजयसेन का विवरण काव्य-सज्जा के परिपार्श्व में प्रस्तुत नहीं किया गया है । काव्यमाधुरी का परित्याग करने पर भी विजयप्रशस्ति का चरितपक्ष समृद्ध नहीं बन सका है ।
विजयप्रशस्ति का महाकाव्यत्व
विजयप्रशस्ति आलोच्य युग के उन महाकाव्यों में है, जिनमें शास्त्रीय नियमों का पूर्णतया पालन नहीं हुआ है । मेवाड़ तथा काव्यनायक की जन्मभूमि नारदपुरी के वर्णन से, काव्य के प्रारम्भ में, कवि ने सन्नगरीवर्णन की आवश्यकता की पूर्ति की है, जो मंगलाचरण, सज्जन- प्रशंसा आदि के साथ काव्य की शास्त्रानुकूलता को द्योतित करती है । अभिजात वैश्यवंश में उत्पन्न विजयसेन, शमवृत्ति की प्रधानता के कारण, काव्य के धीर - प्रशान्त नायक हैं । यद्यपि विजयसेन का नायकत्व निर्विवाद है, किन्तु उनके गुरु हीरविजय का व्यक्तित्व काव्य में इतना तेजस्वी तथा गरिमापूर्ण है कि उसकी उपेक्षा करना सम्भव नहीं है । वे निश्चित
१. गुणविजयगण की विजयप्रदीपिका सहित यशोविजय जैन ग्रन्थमाला में प्रकाशित, ग्रंथांक २३, वीरसम्वत् २४३७
२. इतस्तस्य कवीन्द्रस्य दैवाद् दिवमुपेयुषः ।
पश्चाद् मयाथ विवृतं तत्काव्यं गुरुशासनात् ॥ टीकाप्रशस्ति, ५६