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विजयप्रशस्तिमहाकाव्य : हेमविजयगणि
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रूप से नायक- पद के अधिकारी हैं। महाकाव्य में एकाधिक नायकों के अस्तित्व की परम्परा बहुत प्राचीन है। निस्स्पृह धर्माचार्य के सर्व त्यागी जीवन से ओतप्रोत काव्य में शान्नरस की प्रधानता स्वाभाविक है । रौद्र, वात्सल्य, करुण आदि रसों का भी विजय प्रशस्ति में यथास्थान चित्रण हुआ है, जो अंगी रस से मिलकर काव्य में रसवत्ता की यथेष्ट सृष्टि करते हैं। विजयसेन के तपागच्छ के महान् प्रभावकों में प्रतिष्ठित होने के कारण विजयप्रशस्ति के कथानक को 'प्रख्यात' मानना न्यायोचित है। इसकी रचना का मूलाधार धर्म-प्राप्ति का उदात्त उद्देश्य है। कवि के शब्दों में 'धर्म भवसागर का पान करने वाला अगस्त्य है" । धन-वैभव की अनित्यता तथा निस्सारता को रेखांकित करके समाज को धर्म में प्रवृत्त करना काव्य का लक्ष्य है। विजयप्रशस्ति में महाकाव्य के अन्य तात्त्विक लक्षणों का नितान्त अभाव है । इतिवृत्त में लालित्य तथा माधुर्य का संचार करने वाले प्रकृति तथा वस्तुव्यापार के रोचक वर्णनों के लिए काव्य में अवकाश नहीं है। चरित्र-विश्लेषण से भी कवि पूर्णतया उदासीन है। सारा काव्य प्रव्रज्या-ग्रहण, विहार, प्रवेशोत्सव आदि के वर्णनों से परिपूर्ण है, जो कहीं-कहीं कवित्वपूर्ण होते हुए भी बहुधा नीरस हैं । किन्तु विजयप्रशस्ति को सामान्यतः महाकाव्य मानने में आपत्ति नहीं हो सकती। रचनाकाल
विजयप्रशस्ति में प्रान्तप्रशस्ति का अभाव है, अतः इसका निश्चित रचनाकाल ज्ञात नहीं है । गुणविजय ने टीकाप्रशस्ति में इसका कुछ संकेत किया है। टीका-प्रशस्ति के अनुसार विजयप्रशस्ति हेमविजय के साहित्यिक प्रासाद का स्वर्णकलश है । इसका सीधा अर्थ है कि यह कवि की अन्तिम रचना है, जो उसकी मृत्यु के कारण अधूरी रह गयी थी। गुणविजय ने अन्तिम पांच सर्ग जोड़ कर इसे पूरा करने की चेष्टा की है । उसने इस पर 'विजयप्रदीपिका' टीका भी लिखी, जिसकी पूर्ति स्वयं उसके कथनानुसार, सम्वत् १६८८ में हुई थी।
विजयप्रशस्तिकाव्यप्रकाशिका विजयदीपिका टीका। विदधे विक्रमनपतेर्वर्षे वसुवसुनपप्रमिते ॥५॥
हेमविजय का पार्श्वनाथचरित सम्बत् १६३२ की रचना है। ऋषभशतक की पूर्ति सं० १६५६ में हुई। कथारत्नाकर सम्वत् १६५७ में लिखा गया। विजयप्रशस्ति के हेमविजय द्वारा रचित सोलह सर्गों में सम्वत् १६५५ तक की घटनाएं वर्णित हैं। प्रतीत होता है कि ऋषभशतक, कथारत्नाकर, विजयप्रशस्ति आदि कई ३. संसारनीराकरकुम्भजन्मा धर्मस्तथाभ्यां बहुमन्यते स्म । विजयप्रशस्ति, ११.२६ ४. इत्यादिग्रन्यविधौ सौधे कलशाधिरोपणसवर्णम् । विजयप्रशस्तिकाव्यं तेन कृतं विजयसेनगुरोः॥ टीकाप्रशस्ति, ५५