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जैन संस्कृत महाकाव्य
सुमतिसम्भव के अनुसार इस संघ-यात्रा पर उसने अनन्त धन व्यय किया था। इस यात्रा के फलस्वरूप ही उसे संघनायक की गौरवसूचक उपाधि प्राप्त हुई थी। सेठ जावड़ ने कोई और तीर्थयात्रा की थी अथवा नहीं, यह उसके इतिहास के किसी आधारग्रंथ से ज्ञात नहीं होता।
__ अपने पिता की भाँति जावड़ ने भी अपने गुरु, सुमतिसाधुसूरि को गुजरात से माण्डू में निमन्त्रित किया तथा एक भव्य आयोजन के द्वारा उनका अभिनंदन किया था। इस अवसर पर किस प्रकार सजे हुए हाथियों तथा धोड़ों का जलूस निकाला गया, किस प्रकार वादकों ने विविध वाद्य बजा कर गुरु का स्वागत किया, किस प्रकार समाज के सभी वर्ग-हिन्दू, मुसलमान आदि-उनके आगमन से हर्षित हुए तथा सेठ ने किस उदारता से याचकों में बहुमूल्य परिधान तथा अन्य बेशकीमती वस्तुएँ वितरित कीं, इसका रोचक वर्णन सुमतिसम्भव में विस्तारपूर्वक किया गया है ।
गुरु के सान्निध्य तथा देशना से जावड़ को सर्वप्रथम जो कार्य करने की प्रेरणा मिली, वह था श्रावक के बारह व्रतों का ग्रहण करना । इनमें से प्रथम पांच 'अणुव्रत' के नाम से ख्यात हैं । ‘गुणवत' नामक द्वितीय व्रत-समुदाय के अन्तर्गत छठा, सातवाँ तथा आठवाँ व्रत आता है। अन्तिम चार व्रत 'शिक्षाव्रत' कहलाते हैं। जावड़ ने इन सभी व्रतों का निष्ठापूर्वक पालन किया। किन्तु कुछ व्रतों का पालन करने की उसकी विधि बहुत विचित्र थी। उदाहरणार्थ चतुर्थ व्रत, ब्रह्मचर्य के अंतर्गत उसने दाम्पत्य निष्ठा को निभाते हुए बत्तीस स्त्रियाँ रखने का अपना अधिकार सुरक्षित रखा । निस्सन्देह यह उसने पूर्वोक्त शालिभद्र के अनुकरण पर किया। जावड़ की वस्तुतः चार धर्मपत्नियाँ थीं। प्राचीन राजपूती परम्परा के अनुरूप, जो कुछ पीढियों पूर्व तक राजपूत-मूलक जैन परिवारों में भी प्रचलित थीं, अन्य स्त्रियाँ उसकी रखैलें रही होंगी।
अपरिग्रह नामक पंचम व्रत से, जिसके अनुसार निजी सम्पत्ति को सीमित करना होता है, जावड़ ने निम्नोक्त क्रम में, इन वस्तुओं को अपने अधिकार में रखा१००,००० मन अनाज, १००,००० मन तेल तथा घी, १००० हल, २००० बैल, १० भवन तथा मण्डियाँ, ४ मन चाँदी, १ मन सोना, ४ मन मोती, ३०० मन मणियाँ, १० मन साधारण धातुएँ (तांबा, पीतल आदि), २० मन प्रवाल, १००,००० मन गुड़, २०० मन अफीम, २००० गधे, १०० गाड़ियाँ, १५०० घोड़े, १०. वही, ७.२४ ११. वही, ७.६६ १२. वही, ७.२६-३३ १३. वही, ७.३६ १४. आनन्दसुन्दर, पृ० १७