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सुमतिसम्भव : सर्वविजयगणि
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सारा भाग उपजाति में लिखा गया है। तृतीय सर्ग के प्राप्त अंश में द्रुतविलम्बित की प्रधानता है । अन्त में उपजाति, पुष्पिताग्रा, औपच्छन्दसिक, मन्दाक्रान्ता तथा आर्या छन्द प्रयुक्त हुए हैं । चतुर्थ सर्ग की रचना उपजाति में हुई है । सन्ति के पद्य शार्दूलविक्रीडित तथा आर्या में हैं। पांचवें, छठे तथा सातवें सर्ग में क्रमशः मालिनी, अनुष्टप तथा वियोगिनी को रचना का आधार बनाया गया है। छठे सर्ग का प्रथम पद्य गीति में है । सर्गान्त में रामगिरी राग, अनुष्टुप् तथा आर्या का प्रयोग किया गया है । सप्तम सर्ग के अन्तिम तीन पद्य क्रमशः द्रुतविलम्बित, शार्दूलविक्रीडित तथा आर्या में निबद्ध हैं। अष्टम सर्ग के प्राप्त भाग में जो छन्द प्रयुक्त हुए हैं, वे इस प्रकार हैं - द्रुतविलम्बित, उपजाति, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, वसन्ततिलका, स्रग्विणी, भुजंगप्रयात, रथोद्धता, वंशस्थ, इन्द्रवंशा, मालिनी, पृथ्वी तथा आर्या । इस सर्ग में दो पद्य इस प्रकार खण्डित हैं कि उनका छन्द ज्ञात करना कठिन है। सुमतिसम्भव में ऐतिहासिक वृत्त
पहिले कहा गया है कि सुमतिसम्भव संघपति जावड़ के इतिहास का प्रामाणिक स्रोत है । सर्वविजयगणि जावड़ और उसके परिवार का विश्वसनीय इतिहासकार है । काव्य मे उसने संघपति के वंश, सामाजिक प्रतिष्ठा तथा धार्मिक गतिविधियों का यथातथ्य चित्र अंकित किया है ।
सुमतिसम्भव के लेखक ने अपना विवरण जावड़ के पितामह गोल्ह से प्रारम्भ किया है । जावड़ का पिता राजमल्ल लक्ष्मी का साक्षात् कोश था । कवि के अन्य काव्य आनन्दसुन्दर में जावड़ के परिवार की पूरी वंशावली दी गयी है। उसकी यहाँ आवृत्ति करना कवि ने आवश्यक नहीं समझा। सुमतिसम्भव जावड़ के पूर्वजों की सामाजिक तथा राजनीतिक उपलब्धियों के विषय में मौन है, किन्तु अन्य स्रोतों से ज्ञात होता है कि हापराज को छोड़कर उसके सभी पूर्वज संघपति थे। जावड़ के तीन पूर्वज तो मालव के शासकों के दरबार में प्रतिष्ठित पदों पर आसीन थे । इन्ही स्रोतों से पता चलता है कि जावड़ को भी राजदरबार में सम्मानित पद प्राप्त था। सुल्तान ग्यासुद्दीन ने उसे 'उत्तम व्यवहारी' की उपाधि से विभूषित तथा कोषाध्यक्ष नियुक्त किया था । सुमतिसम्भव में उसके लिए प्रयुक्त 'लघुशालिभद्र' बिरुद उसकी असीम समृद्धि को व्यक्त करता है।
जावड़ ने, विशाल संघ के साथ, आबू तथा जीरपल्ली की यात्रा की थी। ६. निधानवच्छ्यिाम् । सुमतिसम्भव, ७.१६ ७. आनन्दसुन्दर, पृ० ७,६,११ ८. व्यवहारिशिरोरत्नानुकारि तथा गंजाधिकारी । आनन्दसुन्दर की पुष्पिका ६. सुमतिसम्भव, ७.२१