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जैन संस्कृत महाकाव्य
है। अनुप्रास तथा श्लेष कवि के प्रिय अलंकार हैं। काव्य के अधिकतर भाग में ये दोनों अलंकार स्वतंत्र अथवा अन्य अलंकारों के अवयवों के रूप में विद्यमान हैं । प्रव्रज्या ग्रहण करने के लिए गुरु से प्रार्थना करते हुए कुमार के वर्णन में अनुप्रास की मधुरता है।
इत्याधुदन्तं समुदं वदन्तमेतं समेतं स्वजनरनेकैः। विमायवाचापि स निश्चिकायाचिराय चारित्रधुराधुरीणम् ॥ ४.३५
सुमतिसम्भव में यद्यपि श्लेष को पर्याप्त स्थान मिला है किन्तु उसका स्वतंत्र प्रयोग केवल चित्रकूट के वर्णन में हुआ है । प्रस्तुत पद्य में यौवन एवं भवन तथा नूपुर एवं पुर का श्लिष्ट निरूपण किया गया है।
यौवनानि भवनानि यत्प्रजाः शोभयन्ति परमत्तवारणः । नूपुराणि च पुराणि चक्रिरे सर्वदारचितमोहनान्यहो ॥ १.२१
पौर ललनाओं के सम्भ्रम के चित्रण में एक युवती, कुलीन होती हुई भी पण्यांगना का-सा व्यवहार कर रही है । उसके आचरण में विरोधाभास है ।
योषा मुखान्तर्गतनागवल्लीदला चलकुण्डलकर्णदोला। काचित्कुलीनापि कुतूहलेन पण्यांगनारंगमरं ररंग ॥ ४.३०
इस प्रसंग में कुछ सुन्दर स्वभावोक्तियाँ भी दृष्टिगत होती है । कोई स्त्री पैर पर महावर लगा रही थी। तभी उसे कुमार के आगमन की सूचना मिली । वह महावर बीच में छोड़कर गवाक्ष की ओर दोड़ गयी। गीले यावक से गवाक्ष तक उसके पगचिह्नों की कतार बन गयी।
अन्या च धन्या पदयोः प्रदाय तदायतं यावकमाभावात् ।
तद्वीक्षणाक्षिप्ततयाऽऽगवाक्षादभूषयद् भूतलमंघ्रिपातः ॥ ४.२८ निम्नलिखित पद्य में श्रेष्ठी गजराज के यश को आकाशगंगा के तट पर क्रीड़ा करते हुए चित्रित किया गया है । अतः यहाँ अतिशयोक्ति है ।
यदीयदीव्ययशसां कलापः स्वर्वापिकासकतकेलिलोलः। रवैः किमरावणमिट् करोति दानाय विद्वन्मधुपानुदास्यान् ॥ २.२८
इनके अतिरिक्त सुमतिसम्भव में उत्प्रेक्षा, मालोपमा, अर्थान्तरन्यास, दृष्टांत, यमक, यथासंख्य, सन्देह आदि को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है। कुछ अलंकारों का संकर भी हुआ है। छन्दयोजना
सुमतिसम्भव में छन्दों का विधान शास्त्र का अनुगामी है। कुल मिलाकर काव्य में २२ छन्द प्रयुक्त किये गये हैं। इनमें उपजाति की प्रधानता है।
प्रथम सर्ग का मुख्य छन्द रथोद्धता है। प्रारम्भ के दो तथा अन्तिम दो पद्य क्रमशः शार्दूलविक्रीडित, पृथ्वी, पुष्पिताग्रा तथा आर्या में हैं । द्वितीय सर्ग का उपलब्ध