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जैन संस्कृत महाकाव्य करने के लिये तुरन्त स्नान करता है, वैसे ही दिशाओं के मातंगों (हाथियोंचाण्डालों) को अपने हाथ से छूने वाले सूर्य के सम्पर्क से तारे अपवित्र हो गये हैं। उस पाप को धोने के लिए वे अमृतसागर (सुधांशु) में स्नान कर रहे हैं।
दिक्तुंगमातंगलगत्करात्....."मालिन्यमुपाजि सूर्यात् ।
तरापघस्तव्ययनाय नायं सायं मुधा स्नानमधत्सुधांशौ ॥४.३ सौन्दर्य-वर्णन
सर्वविजय की सौन्दर्यान्वेषी दृष्टि मानव के नश्वर शारीरिक सौन्दर्य से विमुख नहीं है। कुमारसम्भव के प्रथम सर्ग के पार्वती के लावण्य के हृदयहारी वर्णन ने परवर्ती कवियों के हाथ में पड़ कर एक रूढि का रूप धारण कर लिया है । उत्तरवर्ती कवियों के सौन्दर्य-चित्रण में अलंकृति तथा विच्छित्ति की प्रवृत्ति अधिक है। कालिदास की मार्मिकता तथा ताज़गी का उसमें अभाव है । सर्वविजय ने भी अपने काव्य में मानव-सौन्दर्य का चित्रण करके इस रूढि का पालन किया है । सुमतिसम्भव में नारी-सौन्दर्य का चित्रण श्रेष्ठी सुदर्शन की रूपसी पत्नी संपूरदेवी के वर्णन में दृष्टिगत होता है। दुर्भाग्यवश सम्बन्धित सर्ग इस वर्णन के बीच ही समाप्त हो गया है । प्राप्त अंश से स्पष्ट है कि कवि को नखशिखविधि से इभ्यपत्नी के विभिन्न अवयवों का वर्णन करना अभीष्ट था। संपूरदेवी के सौन्दर्य की व्यंजना करने के लिये कवि ने यद्यपि बहुधा परम्परागत उपमान ग्रहण किये हैं कितु उसका सौन्दर्यचित्रण सजीवता से रहित नहीं है। . संपूरदेवी की वेणी अप्रतिहत योद्धा काम की तलवार है, जिसकी तीक्ष्णता तीनों लोकों को जीतने से और बढ़ गयी है। उसके माथे पर तिलक, सैन्यभूमि में भाग्य-तुरंग के पगचिह्न के समान प्रतीत होता है । उसकी भौंह को देखकर गर्वीला काम अपने धनुष पर डोरी नहीं चढ़ाता। दन्तावली में मानो लक्ष्मी का माणिक्यकोष छिपा हो । और कटाक्षावली विश्वविजेता पुष्पायुध के स्वागतार्थ बांधी गयी मांगलिक बन्दनवार-सी प्रतीत होती है ।
यवेणिदम्भात्किमयं कृपाणः सप्राणपुष्पायुधयोधपाणः। जगत्त्रयनिर्जयनात्ततेजाः सूक्तं (?) द्विधाराजितकेशवेशः ॥२.३६ विभाति यद्भालतलछलायां खलूरकायां तिलकालिक टात् । परिस्फुरद्भाग्यतुरंगमस्य पदालिरेषा खुरलीकृतः किमु ॥ २.३७ नाको जितः सोऽपि मया पिनाकी सज्जं धनुः किं नु मुधा दधामि । इतीव यद्भनिभतः स्मरोऽस्त्रं गर्वी स मौर्वोरहितं वितेने ॥ २.३८ दन्तावली दाडिमबीजदीप्तिर्देदीप्ति नित्या वदने यदीया। माणिक्यकोशः किमगोपि कोऽपि पद्म निजे सद्मनि पद्मयेह ।। २.४०