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सुमतिसम्भव : सर्वविजयगणि
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fear दिव्य औषधि का सेवन करता है । इसीलिये यद्यपि चकोर उसका सतत पान करते रहते हैं तथापि उसका क्षय नहीं होता ।
प्रव्राजयिष्यन्निव दक्षमुख्यं तं दक्षजाया दयितो हितैषी । अदर्शयत्तस्य न कृष्णसारं चरन्तमन्तस्तृणवत्तमांसि ॥ ४.२ दिव्योषध कामपि सौषधीनामधीश्वरः किं बिभरांचकार ।, न चकोरकै र्यन्निजनेत्र पत्रपेपीयमानोऽपि न याति हानिम् ॥ ४.७
अलंकृत चित्रण के आवरण के नीचे सुमतिसम्भव में यदा-कदा प्रकृति के आलम्बनपक्ष का चित्रण भी दिखाई देता है । केवल चतुर्थ सर्ग में, सूर्योदय के वर्णन में, यह प्रवृत्ति मिलती है । कवि ने यद्यपि यहाँ भी अलंकारों का सहारा लिया है किन्तु इसे प्रकृति का स्वाभाविक चित्रण माना जा सकता है ।
पूर्वाचलोच्च स्तरचूलिकायां व्यभाद्विभानां निलयः स भानुः । पोस्फूर्यते वासरसिन्धुरस्य सिदूरपूर: शिरसीव दीव्यन् ॥४.१३ निर्वास्यर्तावरहानलोग्रां घूमाग्रधारामिव निस्सरन्तीम् । सेवालमालां कलयन् किलास्ये समाजगामांगनया रथांगः ॥ ४.१५
सर्व विजय ने प्रकृति को मानवी रूप भी दिया है । सुमतिसम्भव की प्रकृति कई स्थानों मानव की तरह विविध भावनाओं तथा चेष्टाओं से स्पन्दित है । वाल्मीकि से आरम्भ होकर प्रकृति का मानवीकरण कालान्तर में एक रूढि बन गया जिसका पालन करते हुए उत्तरवर्ती कवियों ने इसे काव्य-परम्परा का रूप दे दिया है । सुमतिसम्भव में काम के दूत वसन्त के प्रयाण के समय लताएँ, पौरांगनाओं की भाँति, पुष्पों के अक्षत बरसा कर तथा भ्रमर-गुंजन के मांगलिक गीत गाकर उसका अभिनन्दन करती हैं । वनदेवियाँ चम्पक के दीपों से उसकी आरती उतारती हैं । वनपंक्ति किसलय रूपी हाथ हिला कर नटी के समान, उसके सामने नृत्य करती है । इस अपूर्व स्वागत से गर्वित हुआ वसन्त आम्रमञ्जरी के बाण का संधान करके युद्ध के लिये तैयार हो जाता है ।
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अनुवनभवनं ताः किल लताः पौरकान्ता: पतदसमसुमैश्चावाकिरन्नक्षतस्तम् । भ्रमरविरवर्णस्तद्गानमानन्ददात्या विदधाति दलदीव्यन्नीलचेलावृताश्च ॥ निरुपमतमसंपच्चम्पकैर्दोपकैः किं विरलतरविसर्पत्षट्पदस्तोमधूमैः । ज्वलति पथिकचित्तः किंशुकोद्यत्कृशानौ तमनु च वनदेव्यो मंजु नीराजयन्ति ॥ प्रतिपदमनिलेनांदोत्यमाना वनाली प्रकटयति नटीवन्नाटकं पुरस्तात् । किशलकरतलानं चालयन्ती समंतात् समसमयसमुद्यद्भू गवारांगहारे ॥ इति नवनवन सेनासंग मंजीत रंगः परभृतशत बन्दिस्तूयमानोऽभिमानी । मधुरयमरुधत्तं योद्धुमुद्धूतचूतांकुरनिकरमतुल्यं शल्यमुल्लालयंश्च ।। ५.२८-३१
चाण्डाल के सम्पर्क से अपवित्र हुआ व्यक्ति जिस प्रकार अपवित्रता को दूर