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सुमतिसम्भव : सर्वविजयगणि अपने सर्वभक्षी अंकुश से मुक्त जानकर तत्काल सम्राट् की भाँति उसके विरुद्ध प्रयाण करता है ! दूत द्रोह के द्वारा प्रतिपक्षी को सचेत करके वह युद्ध के धर्म का पालन करता है । दूत की अमर्यादित उक्तियों का उत्तर संयमधन यति 'ब्रह्मास्त्र' से काम का प्राणान्त करके देता है !
तत्रानयोः प्रबलयोर्बलयोः प्रयोगवृत्ते रणः प्रववृते प्रलयोपमेयः। यत्रोत्पतत्पतदनेकपकुम्भकूटभूमीतटं स्फुटदिति प्रतिभासु भाति ॥ ५.४३ केचिद् भटा घनघटा इव तीव्रतेजोविद्युल्लतावलयितास्ततजितोर्जाः। तत्रोन्नतेनिंगमयन्ति शरावलीभिवृष्टि द्विषकटकयभटकण्ठसीम्नि ॥ ५.४४ सैन्यद्वयेऽपि बहुधा बहुधावदश्च सक्रोधयोधयदुदीरितपांशुपूरैः। आच्छादिते दिनकरे न करेणवोऽपि दृग्गोचरं चरचरेति चरन्ति किं नु ॥ ५.४७ एवंविधे युधि विरोधिशिरोधिहारो मारोऽपि सन्नवधिरेष धनुर्धरेषु । ब्रह्मायुधादवधि येन ततः प्रसिद्धस्तेनैव स त्रिभुवने स्मरसूदनेति ॥ ५.४६
काव्य में एक-दो स्थलों पर शृंगार के आलम्बन पक्ष का भी चित्रण हुआ है। कुमार को देखने को उत्सुक पुरसुन्दरियों के चित्रण तथा काम के प्रयाण के प्रसंग में शृंगार का यह पक्ष दृष्टिगत होता है।
परा कटिन्यस्तकरा सरागमालोकयन्ती स्वकटाक्षलक्ष्यम् । चक्रे प्रचक्रे किमु काम-नाम-गुरोः पुरो धन्वकलाविलासम् ॥ ४.२६
काव्यनायक तथा जावड़ के इतिवृत्त ओर विषयान्तरों में कवि इतना लीन है कि काव्य के मर्म, रस की और उसका ध्यान नहीं गया है। द्वितीय सर्ग के लुप्त अंश में कुमार के शैशव के चित्रण के अन्तर्गत वात्सल्यरस की अभिव्यक्ति हुई होगी, इस श्रेणी के अन्य काव्यों के शिल्प को देखते हुए यह कल्पना करना कठिन नहीं है। प्रकृतिचित्रण
सुमतिसम्भव के ऐतिहासिक इतिवृत्त में प्राकृतिक दृश्यों तथा उपकरणों का तत्परता से चित्रण किया गया है। यह, एक ओर, काव्यशैली के प्रति कवि की प्रतिबद्धता का प्रतीक है, जिसके अन्तर्गत महाकाव्य में रोचकता तथा वैविध्य के लिये प्रकृति-चित्रण को अनिवार्य माना गया है, दूसरी ओर, उसके प्रकृति-प्रेम को व्यक्त करती है । काव्य के आठ में से चार सर्गों में, किसी न किसी प्रकार प्रकृतिवर्णन का प्रसंग है। प्रथम सर्ग में पर्वतमाला, तृतीय में सन्ध्या, चतुर्थ में चन्द्रोदय तथा सूर्योदय और पाँचवें सर्ग में वसन्त का हृदयग्राही कवित्वपूर्ण वर्णन है । सर्व विजय का प्रकृतिवर्णन परम्परागत रूढ कोटि का है । इस दृष्टि से उसमें नवीनता का अभाव है । सर्वविजय ने शैली की नवीनता की कमी को अपनी काव्य-प्रतिभा से