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वस्तुपालचरित : जिनहर्षगणि
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क्योंकि महाकाव्य में छन्द-वैविध्य एक-दो सर्गों में ही काम्य है । जिनहर्ष की भाषा महाकाव्योचित प्रौढता से रहित है । महामात्य के समकालीन कवियों तथा साहित्य के अन्य बहुप्रचलित शताधिक पद्यों का काव्य में समावेश करने से इसकी मौलिकता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है । इसकी यथावद्वर्णनात्मक तथा अपरिमार्जित शैली भी महाकाव्य के लिए अधिक उपयुक्त नहीं है । काव्य की रचना जैनधर्म के माहात्म्य के प्रकाशन तथा उसके प्रचार के सीमित उद्देश्य से हुई है । इस प्रकार वस्तुपालचरित में महाकाव्य के स्वरूपविधायक कुछ तत्त्व ही दिखाई देते हैं । तो भी, जैन महाकाव्यों के सन्दर्भ में वस्तुपालचरित को सामान्यतः महाकाव्य मानने में afar आपत्ति नहीं होनी चाहिए ।
वस्तुपालचरित का स्वरूप
वस्तुपालचरित को ऐतिहासिक रचना माना जाता है । निःसंदेह इससे चौलुक्यवंश, धौलका - नरेश वीरधवल, विशेषकर उसके प्रखरमति अमात्य वस्तुपाल तथा तेजःपाल के विषय में कुछ उपयोगी जानकारी प्राप्त होती है । किन्तु इन सूक्ष्म ऐतिहासिक संकेतों को पौराणिकता के चक्रव्यूह में बन्द कर दिया गया है । ४५५६ पद्यों के इस बृहत् काव्य में कवि ने ऐतिहासिक सामग्री पर २००-२५० से अधिक पद्य व्यय करना उपयुक्त नहीं समझा है । वस्तुपालचरित में पौराणिक काव्यों की विशेषताएँ इतनी प्रबल तथा पुष्ट हैं कि इसकी ऐतिहासिकता उनकी पर्तों में पूर्णतः दब गयी है ।
पौराणिक काव्यों की भाँति वस्तुपालचरित जैनधर्म की गरिमा का वाहक है । प्रत्येक प्रस्ताव में धर्मदेशना की योजना करना इसी दृष्टिकोण का दयनीय परिनाम है । धर्मोपदेश की यह प्रवृत्ति पंचम प्रस्ताव में पराकाष्ठा को पहुँच गयी है । इन देशनाओं के द्वारा कवियों को अपने प्रचारात्मक उद्देश्य की पूर्ति के लिये अबाध स्वतन्त्रता मिल जाती है । जिनहर्ष ने इस स्वतन्त्रता का पूरा उपयोग किया है । जैनधर्म को सर्वोत्तम तथा अन्य मतों को हेय' बतलाने का आधार यही प्रचारवादी दृष्टिकोण है । इसी धार्मिक दुराग्रह के कारण नरवर्मा की सभा में उपस्थित अन्य मतानुयायियों की विचारधारा अस्वीकार कर दी जाती है । वस्तुपालचरित में, पुराणों की भाँति, पूर्व-भवों का वर्णन किया गया है । पाँचवें प्रस्ताव में गणधर, सुर की अकारण हर्षानुभूति की व्याख्या उसके पूर्व जन्म के वर्णन के द्वारा करते हैं । शत्रुंजय, रैवतक आदि धार्मिक स्थानों, तीर्थयात्राओं तथा अन्य धार्मिक अनुष्ठानों का वर्णन भी ठेठ पौराणिक शैली में हुआ है । वस्तुतः काव्य का अधिकांश तीर्थ
२. ( अ ) प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयति शासनम् । वस्तुपालचरित, ४.५०३ (आ) अथ मिथ्यादृशः क्रूरस्वान्ताः शैवतपोधनाः । वही ८.४८