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सोमसौभाग्य : प्रतिष्ठासोम
३२७ गाथा है। जिनधर्म के व्यापक प्रसार के लिये उनके कृत्यों की काव्य में विस्तृत तालिका है।
भाषा
सोमसौभाग्य की भाषा आद्यन्त लालित्य तथा सौष्ठव से ओतप्रोत है। वस्तुतः, जैसा पहले कहा गया है, धर्माचार्य के इतिहास पर आश्रित इस काव्य की परिणति यदि माहात्म्यग्रन्थ अथवा धर्मकथा में नहीं हुई है, इसका सबसे अधिक श्रेय इसकी सहज-मधुर भाषा को है। सर्वत्र प्रांजलता से विशिष्ट होती हुई भी प्रतिष्ठासोम की भाषा कथानक की विभिन्न स्थितियों को, तदनुकूल शब्दावली में, अभिव्यक्ति देने में समर्थ है। इसलिये वह पात्रों की मनःस्थिति के समान कहीं हर्ष से प्रफुल्ल है, कहीं श्रद्धा से तरलित तथा कहीं तर्क से परिपुष्ट । दीक्षावधू का पाणिग्रहण करने के लिये जाते हुए कुमार सोम का चित्र उसके मानसिक आह्लाद के अनुरूप सरलता तथा उल्लास से परिपूर्ण है तो जयानन्दसूरि को सम्बोधित किये गये शब्द शिष्योचित श्रद्धा तथा नम्रता को व्यक्त करते हैं । पुत्र को प्रस्तावित दीक्षा से विरत करने के लिये सज्जन जिस पदावली का प्रयोग करता है, उसमें तर्क की प्रधानता है।
श्रामण्यभारः कथमुह्यते त्वया विमुह्यते यत्र महत्तरैर्नरैः। प्रौढोक्षभिर्वोढुमशक्यमप्यवानस्तर्णकः पुत्र कथं हि चाल्यते । यो खड्गधारोपरि चंक्रमीत्यथो यो दुस्तरं वा तरतीह वारिधिम् । यो वा दुरारोहसुपर्वपर्वतं पद्भ्यां समारोहति पुष्करस्पृशम् ॥ राधाक्षिवेधं विदधाति यो बुधो ज्वालावलीर्यो ज्वलनस्य वा पिबेत् । अतुच्छबुद्धे सुत सोऽपि संयम धर्तुं हि मर्त्यश्चरिकत्ति साहसम् ॥ ४.३७-३९
सोमसौभाग्य की भाषा में वर्ण्य विषय का यथातथ्य चित्र अंकित करने की पर्याप्त क्षमता है। सूक्ष्म पर्यवेक्षण से उपस्थित किये गये उसके शब्दचित्रों में वर्ण्य वस्तु मूर्त हो जाती है । खागहड़ी के जैन मन्दिर का प्रस्तुत वर्णन पढकर मानसपटल पर मन्दिर का यथार्थ रूप अंकित हो जाता है।
रूप्याचलप्रोज्ज्वलतुंगशृंगभूत् सुवर्णकुंभोच्छितदण्डमण्डितम् । ध्वजाग्रजानवरकिंकिणीस्वनः प्रमोदितप्रेक्षकलोकमण्डलम् ॥ अभ्रंलिहैः खण्डितपापमण्डलः श्रीमण्डपमण्डितमुज्ज्वलः कलः । सर्वेन्दिरासुन्दरजनमन्दिरं यः खागहडयां पुरि चार्वकारयत् ।। ८.४-५
सोमसौभाग्य का रचयिता उपयुक्त शब्दों के चयन तथा गुम्फन में सिद्धहस्त है । यथोचित पदशय्या के विवेकपूर्ण प्रयोग से काव्य में श्रुतिमधुर नाद का समावेश ७. वही, ४.५२-५४ ८. वही, ४.५६.