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१७. सुमतिसम्भव : सर्वविजयगणि
तपागच्छीय आचार्यों के जीवनवृत्त पर रचित महाकाव्यों की श्रृंखला में सर्वविजयगण का सुमतिसम्भव, काव्यात्मक गुणों तथा ऐतिहासिक तथ्यों की प्रामाणिकता के कारण विशेष उल्लेखनीय है । काव्य के शीर्षक में, आपाततः, जैन तीर्थंकर सुमति तथा सम्भव के नाम ध्वनित हैं किन्तु उनका काव्य से कोई सम्बन्ध नहीं है । सोमसौभाग्य की भाँति इसमें भी तपागच्छ के एक आचार्य, सुमतिसाधु के धर्मनिष्ठ चरित को निबद्ध करने का प्रयत्न किया गया है। संस्कृत के प्राचीन ऐतिहासिक महाकाव्यों की परम्परा के अनुरूप सुमतिसम्भव में जैनाचार्य का वृत्त अलंकृत काव्यशैली का आंचल एकड़ कर आया है जिसके फलस्वरूप इसमें काव्य-रूढ़ियों का तो तत्परता से पालन किया गया है किन्तु सोमसौभाग्य की तरह इसमें काव्य-नायक की सामाजिक एवं धार्मिक चर्या की अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है । सुमतिसाधु के श्रद्धालु भक्त, माण्डवगढ के धनवान् श्रावक, जावड़ के अतुल वैभव, सामाजिक प्रतिष्ठा तथा धर्मपरायणता के बारे में, काव्य में, कहीं अधिक उपयोगी तथा अत्यन्त रोचक सामग्री निहित है ।
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सुमतिसम्भव की एकमात्र ज्ञात हस्तलिखित प्रति ( ७३०५ ) एशयाटिक सोसाइटी बंगाल, कलकत्ता में सुरक्षित है ।' आठ सर्गों का यह काव्य उन्नीस पत्रों पर लिखा गया था । इनमें से पाँचवां तथा छठा, दो पत्र अनुपलब्ध हैं । आठवें सर्ग का एक अंश (पद्य ३० - ४३ तथा चवालीसवें पद्य के प्रथम तीन चरण) भी नष्ट हो चुका है । अन्यत्र भी काव्य कई स्थलों पर खण्डित तथा अशुद्धियों से दूषित है । प्रत्येक पृष्ठ पर तेरह पंक्तियाँ और प्रत्येक पंक्ति में चालीस अक्षर हैं। कहीं-कहीं व्याख्यात्मक टिप्पणियाँ भी लिखी हुई हैं। प्रस्तुत विवेचन सुमतिसम्भव की उक्त हस्तप्रति की फोटो- प्रति पर आधारित है, जो हमें श्री अगरचन्द नाहटा के सौजन्य से प्राप्त हुई थी ।
सुमतिसम्भव का महाकाव्यत्व
Satara के प्रति कवि की प्रतिबद्धता के कारण सोमसौभाग्य की अपेक्षा सुमतिसम्भव का महाकाव्यत्व अधिक पुष्ट तथा प्रभावी है, यद्यपि इसमें भी महाकाव्य
१. द्रष्टव्य : भंवरलाल नाहटा 'श्रीसुमतिसम्भव नामक ऐतिहासिक काव्य की उपलब्धि', जैन सत्यप्रकाश, वर्ष २०, अंक २-३, पृ. ४४-४५.