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जैन संस्कृत महाकाव्य
प्रतिभावान् कवि तथा शास्त्रार्थ की कला में पारंगत थे । शास्त्रार्थ - मण्डप में उनके प्रविष्ट होने पर प्रवादियों का दर्प चूर हो जाता था । काव्यकला के कारण उन्हें राजदरबार में सम्मान प्राप्त था । राणा कुम्भा उनकी काव्य-प्रतिभा के इतने प्रशंसक थे कि वे उन्हें श्रीहर्ष से भी श्रेष्ठ कवि मानते थे ! जूनागढ़ के राजा के माण्डलिक उनके समस्यापूर्ति के कौशल से चमत्कृत हो उठते थे । दुरूह ग्रन्थों को हृदयंगम करने की उनमें अद्वितीय क्षमता थी । वस्तुतः
पृथ्वी लोक के बृहस्पति थे ।" रत्नमण्डन विद्वद् गोष्ठी के रत्न थे । उनमें मधुरगम्भीर पद्य तथा हृदयग्राही गद्य की अविराम रचना करने का अद्भुत कौशल तथा सामर्थ्य था । " शुभरत्नसूरि ने अपनी दार्शनिक प्रतिभा से वाचस्पति को भी पछाड़ दिया था । सप्त गूढ़ नयों में उनकी प्रवीणता अतुल थी ।" वाचक हेमहंस संस्कृत भाषा के पटु वक्ता तथा वादियों के दर्पं के वैद्य थे । पण्डित विवेकसागर विपक्षी शास्त्रार्थियों की गजघटा के लिए साक्षात् सिंह थे । तर्कशास्त्र में उनकी गहरी पैठ थी । " पण्डित रत्नप्रभ दुरूह एवं क्लिष्ट शास्त्रों के अध्यापन में विशेष कुशल थे । ४५ सोमसौभाग्य प्रतिष्ठासोम की काव्यप्रतिभा का उन्मेष है । इसमें तत्कालीन समाज का व्यापक चित्र समाहित है और इससे तपागच्छ के विभिन्न आचार्यों की धार्मिक तथा साहित्यिक उपलब्धियों की महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है । सीमित-सा कथानक चुनकर भी प्रतिष्ठासोम ने अपनी सुरुचि तथा ललित शैली से काव्य को रोचक बनाने का पूर्ण प्रयत्न किया है । कठिनाई यह है कि काव्य में उसकी प्रतिभा के विहार के लिए अधिक अवकाश नहीं है । यदि वह किसी व्यापक कथानक को लेकर काव्य-रचना करता तो उसकी प्रतिभा साहित्य को उत्कृष्ट कृति प्रदान कर सकती थी ।
४०. वही, १०.३२-४३ ४९. वही, १०.४४-४५
४२. वही, १०.४६
४३. वही, १०.५३
४४. वही, १०.५४ ४५. वही, १०.६०