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१५. वस्तुपालचरित : जिन हर्षगणि
जिन हर्ष का वस्तुपालचरित भी ऐतिहासिक महाकाव्य माना जाता है । इसके आठ विशालकाय प्रस्तावों में चौलुक्य नरेश वीरधवल के नीतिनिपुण महामात्य वस्तुपाल की वीरता, उदारता, कूटनीतिक कौशल, लोककल्याण, साहित्य- प्रेम तथा जैन धर्म के प्रति अपार उत्साह तथा उसकी गौरव - वृद्धि के लिए किये गये अथक प्रयत्नों का सांगोपांग वर्णन किया गया है। वस्तुतः काव्य में वस्तुपाल तथा उसके अनुज तेजःपाल दोनों का जीवनचरित गुम्फित है, किन्तु वस्तुपाल के गरिमापूर्ण व्यक्तित्व के प्रकाश में तेजपाल का वृत्त मन्द पड़ गया है, यद्यपि दोनों के चरितों का काव्य में ऐसा मिश्रण है कि एक को दूसरे से पृथक् करना प्राय: असम्भव है । वस्तुपाल की प्रधानता के कारण ही काव्य का नाम वस्तुपालचरित रखा गया है । ऐतिहासिक पात्रों को धर्मोत्थान का माध्यम बनाने की रीति नयी नहीं है, किन्तु जिस प्रकार कवि ने काव्य को अपने धार्मिक उत्साह का दास बनाया है, वह काव्य तथा इतिहास दोनों के प्रति अन्याय है ।
वस्तुपालचरित का महाकाव्यत्व
वस्तुपालचरित की रचना में जिन मानदण्डों का पालन किया गया है, उनका सम्बन्ध महाकाव्य की आत्मा की अपेक्षा शरीर से अधिक है । काव्य का कथानक वस्तुपाल के उदात्त चरित पर आश्रित है, जो मध्यकालीन भारतीय इतिहास का देदीप्यमान नक्षत्र है । वस्तुपाल धीरोदात्त श्रेणी का नायक है, यद्यपि वह क्षत्रियकुलप्रसूत नहीं, वणिक्कुल का रत्न है । अन्य कतिपय जैन काव्यों की भाँति वस्तुपालचरित में तीव्र रसव्यंजना का अभाव है । प्रसंगवश वीर तथा करुणरस का पल्लवन काव्य में हुआ है । वीररस को ही वस्तुपालचरित का अंगी रस माना जा सकता है, जो शास्त्र के अनुकूल है । शास्त्रीय नियम के अनुसार वस्तुपालचरित के कथानक को आठ विभागों में विभक्त किया गया है, जिनकी संज्ञा यहाँ 'प्रस्ताव' है । प्रत्येक प्रस्ताव का कलेवर पर्याप्त विस्तृत है । वस्तुपालचरित को सामान्यतः सर्गबद्ध कहा जा सकता है, यद्यपि उसके हर प्रस्ताव में नियमानुसार किसी एक प्रसंग का प्रतिपादन नहीं हुआ है बल्कि उनमें विविध प्रकार की सामग्री भरी पड़ी है । छन्दों के प्रयोग में जिनहर्ष को शास्त्रीय विधान मान्य नहीं है । काव्य के प्रत्येक प्रस्ताव में नाना वृत्तों का प्रयोग किया गया है, जो स्पष्टतः मान्य परम्परा का उल्लंघन है
१. जामनगर से पत्राकार प्रकाशित, सम्वत् १९६८