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जैन संस्कृत महाकाव्य माहात्म्यों, चैत्यनिर्माण, प्रतिमा-प्रतिष्ठा, जीर्णोद्धार आदि के अविराम वर्णनों से आच्छन्न है । काव्य में अलोकिक घटनाओं की प्रचुरता है । जिनहर्ष के पात्र मन्त्रबल से आकाश में विहार करते हैं। दिव्य वस्तुओं की प्राप्ति के लिये देवताओं की आराधना की जाती है । अलौकिक शक्तियाँ स्वप्न में प्रकट होकर पात्रों का मार्गदर्शन करती हैं । पुराणों की तरह वस्तुपालचरित में अतीत तथा वर्तमान की घटनाओं को भविष्यत् काल के द्वारा वर्णित किया गया है। अपने मन्तव्य के समर्थन में आगमों से उद्धरण दिये गये हैं तथा 'मदन उवाच', 'अत्र श्लोकसंग्रहः', 'यतः' आदि गद्यांशों को नवीन वक्तव्य प्रारम्भ करने के लिये प्रयुक्त किया गया है। वस्तुपालचरित की समूची प्रकृति पौराणिक काव्यों के समान है। ऐतिहासिक इतिवृत्त के कारण केवल सौकर्यवश इसका विवेचन यहाँ ऐतिहासिक महाकाव्यों के अन्तर्गत किया जा रहा है। कवि-परिचय तथा रचनाकाल
___ वस्तुपालचरित के अन्त में जिनहर्ष ने, काव्य-प्रशस्ति में, अपनी गुरु-परम्परा तथा रचनाकाल के सम्बन्ध में उपयोगी जानकारी दी है। तपागच्छ के प्रवर्तक जगच्चन्द्र के पट्टधर देवेन्द्र गुरु थे। उनके देशना-समाज का सभापतित्व स्वयं ग्व्हामात्य वस्तुपाल किया करते थे। उनकी समृद्ध शिष्य-परम्परा में सोमसुन्दर का नाम उल्लेखनीय है । उत्कृष्ट गुणों के कारण उनकी तुलना गणधर सुधर्मा से की जाती थी। उनके दो शिष्यों ने विशेष ख्याति अर्जित की। मुनि सुन्दरसूरि अपनी बौद्धिक उपलब्धियों के फलस्वरूप बृहस्पति नाम से ख्यात हुए। उनके दूसरे शिष्य जयचन्द्रसूरि वस्तुपालचरित के कर्ता जिनहर्ष के गुरु थे। प्रस्तुत काव्य की रचना जिनहर्ष ने चित्रकूटपुर (चित्तोड़) के जिनेश्वर मन्दिर में, सम्वत् १४६७ (सन् १४४०) में की थी।
विक्रमार्कान्विते वर्षे विश्वनन्दषिसंख्यया।
चित्रकूटपुरे पुण्ये श्रीजिनेश्वरसद्मनि ॥ वस्तुपालचरित में उसने अपने पूर्ववर्ती तथा समवर्ती अनेक कवियों के सैंकड़ों पद्यों का समावेश किया है (८.६७४) । काव्य का प्रथम आदर्श जिनहर्ष के सुधी शिष्य सोमनन्दिगणि ने लिखा था।
सोमनन्दिगणीशिष्यो विनयी विदुराग्रणीः।
गुरुभक्त्या लिलेखास्य वृत्तस्य प्रथमां प्रतिम् ॥ वस्तुपालचरित के अतिरिक्त उनकी रत्नशेखरकथा (चित्तौड़ में रचित), ३. वस्तुपालचरित, प्रशस्ति, ८ ४. वही, ११ ५. वस्तुपालचरित, ८१६७४ (अ)