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१६. सोमसौभाग्य : प्रतिष्ठासोम
प्रतिष्ठानोम का सोमसौभाग्य' विवेच्य युग का एक अन्य ऐतिहासिक महाकाव्य है । इसमें, हम्मीरकाव्य अथवा कुमारपालचरित की भाँति, इतिहास के किसी पराक्रमी शासक के उत्थान - पतन या विजय अभियानों की गाथा वर्णित नहीं है बल्कि इसके दस सर्गों तपागच्छीय आचार्य सोमसुन्दरसूरि के धार्मिक जीवन का ललित शैली में निरूपण किया गया है। धर्माचार्य के वृत्त पर आधारित काव्य को ऐतिहासिक रचना मानने में आपत्ति हो सकती है, किन्तु इतिहास को वैभवशाली. सम्राटों, युद्धों तथा कूटनीतिक उपलब्धियों तक सीमित रखना इतिहास के प्रति अन्याय होगा । एक धर्मनिष्ठ संयमधन साधु भावी पीढ़ियों के लिये उतना ही मान्य तथा स्मरणीय है जितना एक दिग्विजयी सम्राट् । जैन धर्म के इतिहास में वैसे भी ये आचार्य सम्राट् की भाँति मान्य थे तथा उनकी आज्ञा राजशासन के समान अटल एवम् अनुलंघनीय थी । वास्तविकता तो यह है कि इस कोटि के काव्यों में ऐतिहासिक तथ्यों की रक्षा अन्य अधिकांश तथाकथित ऐतिहासिक महाकाव्यों की अपेक्षा कहीं अधिक तत्परता से की गई है । इसका मुख्य कारण यह है कि इन काव्यों के प्रणेता राजाश्रयी चाटुकार कवि नहीं अपितु निस्स्पृह साधु हैं, जो तथ्य के यथावत् प्रतिपादन में ही अपनी भारती की सार्थकता मानते हैं । उन्हें धन, मान आदि सांसारिक प्रलोभनों की आकांक्षा नहीं है । अतः सम्बन्धित आचार्यों का जीवनवृत्त जानने के के लिए ये कृतियाँ बहुत उपयोगी हैं। सोमसौभाग्य का महाकाव्यत्व
जहाँ तक सोमसौभाग्य के महाकाव्यत्व का प्रश्न है, इसमें प्राचीन भारतीय आलंकारिकों द्वारा निर्धारित महाकाव्य के प्रायः सभी स्थूल तत्त्वों का निष्ठापूर्वक पालन किया गया है । सोमसौभाग्य में महाकाव्य के लिये आवश्यक अष्टाधिक - दससर्ग हैं | इसका आरम्भ सात पद्यों के मंगलाचरण से हुआ है, जिनमें क्रमश: आदिप्रभु, शान्तिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर, सरस्वती तथा विद्यागुरु की स्तुति है । इनमें कुछ पद्य आशीर्वादात्मक हैं, कुछ नमस्कारात्मक | काव्य का शीर्षक काव्य-नायक
नाम पर आधारित है । सर्गों के नाम उनमें प्रतिपादित विषयों के अनुरूप रखे गये है । प्रह्लादनपुर के ललित वर्णन से, महाकाव्य के आरम्भ में, सन्नगरीवर्णन की परम्परा का निर्वाह किया गया है । क्षेत्र के सीमित होते हुए भी सोमसौभाग्य में
१. जैन ज्ञानप्रसारक मण्डल, बम्बई से गुजराती अनुवाद सहित प्रकाशित, सन् १९०५