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सोमसौभाग्य : प्रतिष्ठासोम
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थे । उन्होंने इस मनोरम तथा सुगम काव्य का प्रणयन सम्वत् १५२४ (सन् १४६७ ) में किया था ।
पारावारकरस्मरेषुहिमरुक् वर्षेऽतिहर्षाद् व्यधात् विज्ञानां हृदयंगमं च सुगमं क्लृप्तेंदिरासंगमम् । काव्यं नव्यमिदं विदम्भहृदयः शिष्यः प्रतिष्ठादिमः सोमः श्रीयुतसोमसुन्दरगुरोमेरोर्गरिम्णः श्रिया ॥ १०.७३
कवि के शब्दों में यह काव्य दोषों से मुक्त है । यह कथन सामान्यतः सत्य माना जा सकता है । सोमसोभाग्य का संशोधन सुमतिसाधु ने किया था । ये वही सुमति - साधु हैं, जिनके जीवनवृत्त पर आधारित 'सुमतिसम्भव' काव्य की विवेचना इसी अध्याय में आगे की जाएगी।
कथानक
गुणगुणरत्नसिंधुना साधुना सुमतिसाधुनादरात् ।
नव्यकाव्यमिदमस्तदूषणं प्राप्तभूषणगणं च निर्ममे ॥ १०.७४
सोमसौभाग्य दस सर्गों का महाकाव्य है । काव्य का आरम्भ प्रह्लादनपुर ललित वर्णन से हुआ है, जिसकी स्थापना अर्बुदाचल के अधिपति प्रह्लादन ने की थी । प्रथम सर्ग के शेष भाग में वहाँ के धनाढ्य व्यापारी सज्जन तथा उसकी सुन्दरी पत्नी माल्हणदेवी के गुणों तथा धार्मिक वृत्ति का वर्णन है । माल्हणदेवी सज्जन को उसी प्रकार प्रिय थी जैसे चातक को पावस, हाथी को शल्लकी तथा मुमुक्षु को मुक्ति । द्वितीय सर्ग में सज्जन की पत्नी को स्वप्न में चन्द्रमा दिखाई देता है जो उसके चन्द्रतुल्य पुत्र के भावी जन्म का सूचक था । सम्वत् १४३० में माल्हणदेवी ने एक पुत्र को जन्म दिया । पिता ने उसके रूप के अनुरूप उसका सार्थक नाम सोम रखा । पांच वर्ष की अवस्था में, लेखशाला में प्रविष्ट होकर उसने शीघ्र ही विविध शास्त्रों के सागर को पार कर लिया । तृतीय सर्ग में महावीर प्रभु, उनके कतिपय गणधरों तथा जैन धर्म के अन्य महापुरुषों के सरसरे वर्णन के पश्चात् जगच्चन्द्र से जयानन्द तक तपागच्छ के पूर्वाचार्यों की परम्परा का निरूपण है । चन्द्रगच्छीय आचार्य सर्वदेव ने आबू पर्वत की उपत्यका में, वटवृक्ष की सघन छाया में, आठ महाबुद्धि श्रमणों को सूरि पद पर प्रतिष्ठित किया जिससे चन्द्रगच्छ का नाम वटगच्छ अथवा बृहद्गण पड़ा । इसी गच्छ के जगच्चन्द्रसूरि के द्वादशवर्षीय कठोर तप के कारण उनका गण तपागच्छ नाम से प्रख्यात हुआ । चतुर्थ सर्ग में सोम अपनी बहिन के साथ, सात वर्ष की अल्पावस्था में, सम्वत् १४३७ में आचार्य जयानन्द से दीक्षा ग्रहण करता है । पंचम सर्ग में जयानन्द के निधन के पश्चात् देवसुन्दर के गच्छनायक बनने, ज्ञानसागरसूरि द्वारा सोमसुन्दर की विधिवत् शिक्षा तथा उसके ( सोमसुन्दर के) क्रमश: गणी, वाचक तथा सूरिपद पर प्रतिष्ठित होने का वर्णन है । वे सम्वत् १४५० में,