________________
वस्तुपालचरित : जिनहर्षगणि
३१५
भाषा
जिनहर्ष की भाषा उसके उद्देश्य के अनुरूप है । इस कोटि के साहित्य में जिस सर्वजनगम्य भाषा का प्रयोग. उपयुक्त है, वस्तुपालचरित में आद्यन्त वही सरलसुबोध भाषा दृष्टिगत होती है। काव्य में पात्रों के मनोगत भावों के चित्रण का अधिक अवकाश नहीं है, इसलिये इसकी भाषा में एकरूपता है। उसमें महाकाव्योचित वैविध्य का अभाव है। काव्य में संगृहीत पररचित पद्यों की भाषा का जिनहर्ष की पदावली से भिन्न होना स्वभाविक है । जिनहर्ष की अपनी भाषा बहुधा कान्तिहीन है । उसका एकमात्र गुण सरलता है। वस्तुपालचरित की सरल भाषा की सुगमता विशेष उल्लेखनीय है । नीतिसाहित्य के अतिरिक्त साहित्य के नीतिपरक अंश समाज के सभी वर्गों की सम्पत्ति हैं। उसकी हृदयंगमता का आधार उसकी सुबोधता है । वस्तुपालचरित के नीति-प्रसंग, भाषा की सरलता के कारण पढते ही हृदय में अंकित हो जाते हैं।
यथा नेत्रं विना वक्त्रं विना स्तम्भं यथा गृहम् । न राजते तथा राज्यं कदाचिन्मन्त्रिणं विना ॥ १.२.७ अवृत्तिभयमंत्यानां मध्यानां मरणाद् भयम् । उत्तमानां च मानामपमानात्परं भयम् ॥ २.३८४ अनुचितकारम्भः स्वजनविरोधो बलीयसा स्पर्धा । प्रमदाजनविश्वासो मृत्युद्वाराणि चत्वारि ॥ २.५१६ शीलसम्यक्त्वमुक्तात्मा त्याज्यो गुरुरपि स्वकः ।
दष्टोऽहिना यथांगुष्ठो मलः स्वांगभवो यथा ॥ ६.१७ जैन संस्कृत महाकाव्यों की परम्परा के अनुसार वस्तुपालचरित में देशी शब्द भी प्रयुक्त किये गये हैं। यह मातृभाषा के कारण हो अथवा काव्य को सुबोध बनाने की आतुरता के कारण, यह प्रवृत्ति काम्य नहीं है । निस्सान, बीटक, बलानक, तोबा आदि शब्द विशेष उल्लेखनीय हैं। जिनहर्ष ने काव्य में यत्र-तत्र भावपूर्ण सूक्तियों का भी प्रयोग किया है । अवीक्ष्य परसामर्थ्यं सर्वोऽपि खलु गर्जति (२.२७७), नीचा एव नीचानुपासते (४.१३५), नो निद्रा योगीन्द्राणां भवेत्क्वचित् (६.८६), सन्तो नांचन्त्यनौचितीम् [७.१११] आदि बहुत रोचक हैं। अलंकारविधान
वस्तुपालचरित का प्रचार-पक्ष इतना प्रबल है कि उसने काव्य के अन्य सभी धर्मों को आच्छन्न कर लिया है। इसमें सामान्य अलंकारों का ही प्रयोग किया गया है। अलंकार-कौशल का प्रदर्शन कवि का ध्येय नहीं है। शब्दालंकारों में अनुप्रास, श्लेष तथा यमक को स्थान मिला है। मूलनायक के स्नानोत्सव-वर्णन के इस पद्य में अनुप्रास की मनोरमता है ।