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जैन संस्कृत महाकाव्य
अभिषेकतोयधारा धारेव ध्यानमण्डलाग्रस्य ।
भवभवनभित्तिमागान् भूयोऽपि भिनत्तु भागवती ॥ ६.३३१ प्रस्तुत पंक्तियों में योगिनीपुर [दिल्ली] के वासियों का चित्रण श्लेष पर आधारित है।
नदीनाः पुण्यलावण्यगभीरा धीवरप्रियाः।
समुद्राः पुरुषाः सर्वे जनकान्नसंपदः ॥ ७.४ तेजःपाल द्वारा अश्वबोधतीर्थ में निर्मित पुष्पवाटिका का वर्णन कवि ने पादयमक से इस प्रकार किया है ।
पुराद बहिरसौ पुष्पवनं तालतमालवत् ।
चक्रे जिनार्चन विधावनंतालतमालवत् ॥ ४.६५६ ___ धरणीतिलक के श्रेष्ठी के पुत्रजन्म के दुष्प्रभाव का प्रतिपादन करने में उपमा का आश्रय लिया गया है। उसके जन्म से सम्पत्तियां कुलटाओं की तरह तत्क्षण नष्ट हो गयीं।
__ क्रमेण सम्पदो नेशुः कुलटा इव तत्क्षणात् । ३.८८ ___ महामात्य वस्तुपाल का तत्त्वचिन्तन कवि ने रूपक के द्वारा अभिव्यक्त किया है। विषय तथा संसार पर क्रमशः मांस तथा श्वान का आरोप करने से यहाँ रूपक अलंकार है।
विषयामिषमुत्सृज्य दण्डमादाय ये स्थिता ।
संसारसारमेयोऽसौ बिभ्यत्तेभ्यः पलायते ॥ २.२०३ निम्नांकित पद्य में पूर्व के सामान्य कथन की पुष्टि उत्तरार्द्ध की विशेष उक्ति से की गयी है । यह अर्थान्तरन्यास है।
कलावतां नृणां संपज्जायते हि पदे पदे ।
समुद्रान्निर्गतश्चन्द्रः शम्भुमौलिमशिश्रियत् ॥ २.४१८ वस्तुपालचरित में उत्प्रेक्षा, दृष्टान्त, अप्रस्तुतप्रशंसा, विशेषोक्ति, परिसंख्या, विरोध, सहोक्ति आदि भी अभिव्यक्ति के माध्यम बने हैं।
छन्द-योजना - छन्दों के प्रयोग में जिनहर्ष ने शास्त्रीय विधान का स्पष्ट उल्लंघन किया है । वस्तुपालचरित संस्कृत के उन इने-गिने काव्यों में है, जिनमें प्रत्येक सर्ग में विविध छन्दों का प्रयोग हुआ है। इसके आठों प्रस्तावों में अनुष्टुप् की प्रधानता है, जो कवि के उद्देश्य के लिये सर्वथा उपयुक्त है। किन्तु जिनहर्ष ने बीच-बीच में अनेक छन्द डालकर पाठक के मार्ग में अनावश्यक विघ्न पैदा किया है। प्रथम प्रस्ताव में जो बारह छन्द प्रयुक्त हुए हैं, अनुष्टुप् के अतिरक्त वे इस प्रकार हैं-शार्दूलविक्रीडितं, मन्दाक्रान्ता, उपजाति, वसन्ततिलका, इन्द्रवज्रा, शिखरिणी, रथोद्धता, शालिनी, वंश