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वस्तुपालचरित : जिनहर्षगणि
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जिनहर्ष के अनुसार आर्हत धर्म मुख्यतः सम्यक्त्व, दया, शील तथा तप के चार स्तम्भों पर आधारित है । सदर्शन इस धर्मतरु का मूल है । शंका आदि दोषों से मुक्त मानस में देव, गुरु तथा विशुद्ध धर्मविधि के प्रति जो अंतरंग रुचि उदित होती है, उसे सम्यक्त्व कहते हैं । सम्यक्त्व पांच प्रकार का है -औपशमिक, सास्वादन, तार्तीयिक, वेदक तथा क्षायिक । औपशमिक सम्यक्त्व दो प्रकार का है-जीवाजितग्रन्थिभेद तथा महोपशम । ग्रंथिभेद, ज्ञानदृष्टि से प्राणियों की परम स्थिति है । जीव के रागद्वेष के परिपाक को ग्रंथि कहते हैं । काठ की भाँति वह दुर्भेद्य तथा दुश्छेद्य है । ग्रंथि का भेदन होने से जो क्षणिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है, उसे औपशमिक कहा जाता है । यह नैसर्गिक औपशमिक है। ग्रंथिभेद यदि गुरु के उपदेश से हो, वह आधिगमिक सम्यक्त्व कहलाता है । जीव का मोह शान्त होने से द्वितीय औपशमिक की उत्पत्ति होती है । सम्यक्त्व का उत्कृष्ट परिणाम जब एक-साथ जघन्य षड वलि को धारण करता है, वह सास्वादन सम्यक्त्व है। मिथ्यात्व तथा क्षय के उपशम से जो सम्यक्त्व पुद्गलोदय के वेत्ता जीव में उत्पन्न होता है, उसे तार्तीयिक कहते हैं। जीव जिस क्षीणप्राय: चरमांशक सम्यक्त्व को जानता है, वह वेदक है। पूर्व युक्ति से सप्तक के क्षीण होने पर क्षायिक संज्ञक पांचवां सम्यक्त्व है। यह पंचविध सम्यक्त्व गुणों के आधार पर तीन प्रकार का है-रोचक, दीपक तथा कारक । दृष्टान्त आदि के बिना ही जो तीव्र श्रद्धा होती है, वह रोचक सम्यक्त्व है। दूसरों के लिये प्रकाश करने के कारण वह दीपक कहलाता है । पंचाचार क्रिया के अनुष्ठान के कारण उसे कारक कहते हैं।
जैन धर्म दो प्रकार का माना गया है-यतिधर्म तथा श्रावकधर्म । जिनोदित यतिधर्म के दस तत्त्व हैं-क्षमा, अक्रोध, मार्दव, आर्जव, मानमर्दन, छलत्याग, निर्लोभ, बारह प्रकार का तप तथा दस प्रकार का संयम। श्रावकधर्म में बारह व्रतों का पालन करने का विधान है ।
दान
वस्तुपालचरित में दान की महिमा का रोचक निरूपण किया गया है। चतुर्विध सर्वज्ञ-धर्म में दान सर्वोपरि है। वह तीन प्रकार का है। समस्त सम्पदाओं का कारणभूत तथा तत्त्वातत्त्व का विवेचक ज्ञानदान सर्वोत्तम है । अभयदान जनप्रिय तथा लोकोपयोगी है । अभयदान से आरोग्य, आयु, सुख, सौभाग्य की प्राप्ति होती है। दया के बिना धर्मकार्य व्यर्थ है । आहारादि दान की अपेक्षा दयादान अधिक महत्त्वपूर्ण है । समस्त दानों का फल कुछ समय के बाद क्षीण हो जाता है किन्तु दयादान ६. वही, ५.२०-४५ ७. वही, ५.२५६-२६१