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कुमारपालचरित : चारित्रसुन्दरगणि
३०५ है । हेमचन्द्र तथा मेरुतुंग के भिन्न विवरणों के आधार पर कुछ विद्वानों ने कुमारपाल तथा अर्णोराज के दो युद्धों की कल्पना की है । उनका विचार है कि प्रथम आक्रमण अर्णोराज की ओर से हुआ था। इसमें कुमारपाल पराजित हुआ और उसे आक्रान्ता शाकम्भरी-नरेश को अपनी बहिन देवलदेवी देने का अपमान सहना पड़ा। पराजय के अपमान का बदला लेने के लिये चालुक्यराज ने, अवसर पाकर, शाकम्भरी को घेर लिया। इस बार विजय उसे प्राप्त हुई ।१५
खेल के परिहास को युद्ध का कारण मानना जैन कवि के धार्मिक उत्साह का विद्रूप है। देवलदेवी का उक्त युद्ध से कोई सम्बन्ध नहीं है । वस्तुतः कुमारपाल की देवलदेवी नामक कोई बहिन नहीं थी । सिद्धराज जयसिंह की पुत्री कांचनदेवी अर्णोराज से विवाहित अवश्य थी परन्तु चालुक्य-चौहान संघर्ष में उसकी कोई भूमिका नहीं रही है । देवलदेवी, जिस पर युद्ध का दायित्व थोंपा गया है, जैन कवियों तथा प्रबन्धकारों की कल्पना की उपज है ।
कुमारपाल तथा अर्णोराज की भिड़न्त अवश्य ही दो बार हुई थी, किन्तु उसके कारण शुद्ध राजनीतिक थे, जिनका रोचक विवेचन अन्यत्र पढ़ा जा सकता है।" वडनगरप्रशस्ति (श्लोक १४, १८) से विदित होता है कि यह युद्ध सम्वत् १२०८ (सन् ११५१) से पूर्व समाप्त हो चुका था।
चारित्रसुन्दर ने कुमारपाल के मालवयुद्ध का उल्लेख नहीं किया है, यद्यपि मालवविजय उसके राजनीतिक जीवन की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी। गजनी के मलेच्छ को हेमचन्द्र द्वारा मन्त्रबल से बांधने की कल्पना सर्वथा अनंतिहासिक है।
___ इस प्रकार कुमारपालचरित में, कतिपय प्रामाणिक तथ्यों को छोड़कर, बहुधा इतिहास का विपर्यास प्रस्तुत किया गया है । चारित्रसुन्दर ने जनश्रुति तथा जैन प्रबन्धों से कुमारपाल के विषय में जो कुछ ज्ञात हुआ, उसे यथावत् स्वीकार कर लिया। उसके धार्मिक आवेश ने इतिहास के साथ न्याय नहीं किया है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि चारित्रसुन्दर की प्रतिभा उसके उद्देश्य की बन्दिनी है। यदि वह धर्मोत्साह के तंग घेरे से निकल कर उन्मुक्त वातावरण में श्वास लेने का प्रयास करता तो उसकी काव्यकला का उत्कृष्ट रूप सामने आता और वह इतिहास के साथ भी न्याय कर पाता।
१५. हरबिलास सारदा : स्पीचेस एण्ड राइटिंग्स, २८५-२८६ १६. भारतकीमुदी, भाग २, पृ.८७८७६ १७. वही, पृ. १८२-८८४