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जैन संस्कृत महाकाव्य
कुमारपाल के नर्तकी का वंशज होने के कारण नहीं था, जैसा मेरुतुंग ने माना है। इसके गम्भीरतर कारण थे । जयसिंह की सन्तानहीनता ने कुमारपाल को उसका भावी उत्तराधिकारी बना दिया था। यह सम्भावना सिद्धराज को सह्य नहीं थी। अतः उसने कुमारपाल को समाप्त करने का षड्यन्त्र बनाया, जिससे भीत होकर उसे सतत सात वर्ष अज्ञातवास करना पड़ा। कुमारपाल के इस प्रवास की पुष्टि मुस्लिम इतिहासकारों के विवरणों से भी होती है। उसके पिता त्रिभुवनपाल का वध सिद्धराज के इसी ध्वंसकारी कुचक्र का परिणाम था।
__ जयसिंह की मृत्यु के पश्चात् राज्य प्राप्त करने में कुमारपाल को अपने बहनोई सेनापति कृष्ण से यथेष्ट सहायता मिली थी । यह इतिहास की विडम्बना है कि जिस कृष्ण ने गाढ़े समय में कुमारपाल का मार्ग दर्शन तथा सहायता की थी, उसे ही चालुक्यराज की तलवार का शिकार बनना पड़ा।" प्रबन्धचिन्तामणि से कुमारपाल की इस राजनीतिक कठोरता की पुष्टि होती है (पृ. ७६)।
काव्य में कुमारपाल के विजय-अभियानों की भी चर्चा है। कोंकणनरेश मलिकार्जुन को कुमारपाल का मन्त्री आम्बड़ द्वितीय आक्रमण में ही पराजित कर सका था। यह घटना सन् ११६२ से पूर्व की है क्योंकि उसी वर्ष मलिकार्जुन के उत्तराधिकारी अपरादित्य का शासन प्रारम्भ होता है । सौराष्ट्र-युद्ध को जन कवि ने धार्मिक चश्मे से देखा है । अजहत्या का युद्ध का का कारण मानना हास्यास्पद है। श्री भगवानलाल का मत है कि यह युद्ध सन् ११४८ के करीब हुआ था।
कमारपालचरित में कुमारपाल तथा शाकम्भरी-नरेश अर्णोराज के इतिहास. प्रसिद्ध युद्ध का वर्णन है। चारित्रसुन्दर के विवरण के अनुसार कुमारपाल की बहिन देवलदेवी अर्णोराज की पत्नी थी। शतंरज खेलते समय एक दिन अर्णोराज ने गोटी के लिये मारि (हिंसा.) शब्द का प्रयोग किया जिससे देवलदेवी की अहिंसात्मक भावना को ठेस पहुँची। उसके प्रतिवाद करने पर शाकम्भरी-नरेश ने उस पर पांव से प्रहार किया । अपनी बहिन के इस अपमान से उत्तेजित होकर कुमारपाल ने शाकम्भरी पर आक्रमण कर दिया। युद्ध में अर्णोराज पराजित हुआ, पर बहिन के अनुरोध पर कुमारपाल ने उसका प्राणान्त नहीं किया ।
साधनों का बाहुल्य होते हुए भी इस चालुक्य-चौहान युद्ध का स्वरूप स्पष्ट नहीं १०. आईने अकबरी, खण्ड २, पृ. २६३. ११. कुमारपालचरित, ३.२.२-११. १२. लक्ष्मीशंकर व्यासः चौलुक्य कुमारपाल, पृ. ११४ १३. वही, पृ. ११५. १४. कुमारपालचरित, ६.३.६-४५.