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देवानन्दमहाकाव्य : मेघविजयगणि
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आभास मिल सकेगा।
बधुरधिकरुषं स्त्रियो न रागं मतनुतरतये वसंता न कः। नवसुरमिसुमनजाऽन्यवमतनुत रतयेव सन्तानकः ॥ ६.७८
यमक के पश्चात् देवानन्द में उपमा का स्थान है । मेघविजय ने अपने उपमान प्रकृति, दर्शन, व्याकरण. लोकव्यवहार तथा पुराकथाओं से ग्रहण किये है । विजयसिंहसूरि की आज्ञा का अतिक्रमण करना उतना असम्भव था जितना देवसेना को अभिभूत करना (३-६७) । आचार्य के मुखारविन्द से सुधावर्षी वाणी ऐसे निस्सृत हुई जैसे विष्णु के शरीर से प्रजा (३.६८)। गुरुदेव की वन्दना के लिए लोग नगरी से ऐसे निकले जैसे विधाता के मुख से वेद (३.१००)। लोकजीवन पर आधारित यह उपमा देखिये । वासुदेव ने गुरु की शुश्रूषा से शास्त्ररस इस प्रकार पी लिया जैसे दीपक अपनी बाती से तेल चूस लेता है।
शुश्रूषया गुरोरेष कृत्स्नशास्त्ररसं पपौ।
दशाकर्ष इव स्नेहं दशया ह्यन्तरस्थया ॥२.६३ ___इन मुख्य अलंकारों के अतिरिक्त देवानन्द में काव्यलिंग, विरोधाभास, उत्प्रेक्षा, अर्थान्तरन्यास, दृष्टान्त, अतिशयोक्ति, श्लेष, यथासंख्या, असंगति, सहोक्ति आदि अलंकारों का भी प्रयोग किया गया है।
छन्दों के प्रयोग में मेषविजय ने शास्त्रीय विधान का अनुवर्तन किया है। चतुर्थ सर्ग में नाना वृत्तों का प्रयोग भी शास्त्रानुकूल है । इस सर्ग में जिन तेईस छन्दों को अपनाया गया है, उनके नाम इस प्रकार हैं - उपजाति, वसन्ततिलका, पुष्पिताना, दूत'विलम्बित, शालिनी, पथ्या, प्रहर्षिणी, जलधरमाला, वंशस्थ, उपेन्द्रवजा, प्रमिताक्षरा, कुररीरुता स्रग्विणी, मत्तमयूर, दोधक, मंजुभाषिणी, आर्यागीति, जलोद्धतगति, रथोद्घता, भ्रमरविलसितम्, मालिनी, पृथ्वी तथा वंशपत्रपतितम् । अन्य छह सगों की रचना में मुख्यतः वंशस्थ, अनुष्टुप्, उपजाति, वसन्ततिलका द्रुतविलम्बित तथा पुष्पिताना का आश्रय लिया गया है। इनके अन्त में प्रयुक्त होने वाले छन्द इस प्रकार हैंपुष्पिताग्रा, शार्दूलविक्रीडित, औपच्छन्दसिक, द्रुतविलम्बित, मालिनी, पंचकावली, शिखरिणी, प्रभा, स्वागता, तोटक, कुटिलक, मत्तमयूर तथा मन्दाक्रान्ता । कुल मिला कर देवानन्द में बत्तीस छन्द प्रयुक्त हुए हैं। इनमें अनुष्टुप् की प्रधानता है । मेघविजय ने कतिपय अप्रचलित अथवा कम प्रचलित छन्दों के द्वारा अपने छन्दकोशल का प्रदर्शन भी किया है।
- देवानन्द एक चमत्कृतिप्रधान महाकाव्य है । भाषायी जादूगरी के द्वारा अपने रचनाकौशल का प्रकाशन करना कवि का अभीष्ट है । इसलिए धर्माचार्य के चरित 'पर आधारित हुआ भी यह चित्रकाव्य की कलाबाजियों से आक्रान्त है। इसमें उदात्त कवित्व अथवा जीवन दर्शन का अभाव है। देवानन्दमहाकाव्य मेघविजय के पाण्डित्य का परिचायक है तथा इसकी शाब्दी क्रीड़ा क्षणिक चमत्कार भी उत्पन्न करती है किन्तु इसका महत्त्व बौद्धिक व्यायाम से अधिक नहीं है।