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जैन संस्कृत महाकाव्य
और शृंगाररस को अध्यात्मरस (ब्रह्मानन्द) से भी उच्चतर आमन्द की पदवी प्रदान कर उसके प्रति वरीयता प्रकट की है। सम्भवतः 'शृंगारवीराद्भुत' विशेषण में उल्लिखित रसों का क्रम भी श्रृंगार की प्रमुखता को द्योतित करता है।
इस विरोध के बावजूद नयचन्द्रसूरि वीर तथा शृंगार दोनों के मर्मज्ञ चित्रकार हैं। हम्मीरमहाकाव्य का अंगीरस वीर है । उसके वीररसपूर्ण ऐतिहासिक इतिवृत में रतिक्रीड़ा तथा अन्य शृंगारिक चेष्टाओं का विस्तृत वर्णन (५-७) अप्रासंगिक तथा अवांछनीय प्रतीत होता है, परन्तु अपने काव्यसिद्धान्त" का अनुसरण करते हुए नयचन्द्र ने शृंगार को काव्य में इतना व्यापक स्थान दिया है कि वह वीर रस पर हावी हो गया है। काव्य के इस भाग से ऐसा प्रतीत होता है कि यह अमरुशतक आदि की तरह मूलरूप से शृंगारिक रचना है । ये शृंगार-लीलाएं माघ के कथानक में भी पूर्णतया नहीं खप सकी हैं फिर उस ऐतिहासिक काव्य में जिसका अन्त नायक के बलिदान तथा तज्जन्य शोक में होता है, यह नग्न कामुकता कैसे ग्राह्य हो सकती है ? ' स्पष्टतः अपने काव्यशास्त्रीय आदर्श का परिपालन करने की लालसा तथा माघ के अनुकरण की भावना ने कवि को औचित्य से भ्रान्त कर दिया है । पर इसका यह अभिप्राय नहीं कि हम्मीरमहाकाव्य में वीररस की सफल व्यंजना नहीं हुई है। वस्तुतः काव्य के तीसरे, आठवें, नवें, ग्यारहवें तथा बारहवें सर्गों के युद्ध-वर्णनों में वीररस को सशक्त अभिव्यक्ति मिली है। यह बात भिन्न है कि हम्मीरमहाकाव्य का युद्धवर्णन चरितकाव्यों के वातावरण का आभास देता है। इसके युद्ध-वर्णनों के अन्तर्गत अधिकतर उन वीररसात्मक रूढियों का वर्णन हुआ है जो चरितकाव्यों तथा हिंदी के वीरगाथाकाव्यों की निजी विशेषता समझी जाती हैं । इसलिये हम्मीरकाव्य के सभी युद्धों के वर्णन में प्रतिद्वन्द्वी सेनाओं की सज्जा, उनके प्रयाण, तलवारों की टकराहट, हाथियों की चीत्कार, धनुषों की टंकार, कबन्धों के नर्तन, योद्धाओं के साहसिक करतबों तथा विरोधी सैनिकों के द्वन्द्व-युद्ध में जूझने, देवांगनाओं के मृत वीरों का वरण करने के लिये समरांगण में आने आदि का वर्णन किया गया है। इन रूढियों का निरूपण बारहवें सर्ग में हुआ है। इनके लिये नयचन्द्र माघकाव्य का ऋणी है, जिसमें सर्वप्रथम इन रूढियों का साग्रह प्रतिपादन दिखाई देता है । हम्मीर काव्य में प्रयुक्त वीररसात्मक रूढियों के कतिपय उदाहरण द्रष्टव्य हैं।
भक्तुं विपक्षकरिकुम्भघर्षणः कण्डू लतां स्वभुजदण्डयोरथ । चेलुर्भटा अपि बलद्वयाद् रणोत्साहत्रुटत्त्रुटदशेषकंकटाः ॥ १२.३२ पत्तिः पदातिकमियाय सादिनं सादी रथस्थितमहो महारथी ।
मातंगयानगमनो निषादिनं द्वन्द्वाहवोऽजनि तदेति दोष्मताम् ॥ १२.३३ ३८. रतिरसं परमात्मरसाधिकं कथममी कथयन्तु न कामिनः। ___ यदि सुखी परमात्मविदेकको रतिविदौ सुखिनौ पुनरप्युभौ ॥ वही, ७.१०४ ३६. रसोऽस्तु यः कोऽपि परं स किंचिन्नास्पृष्टशृंगाररसो रसाय। ___ सत्यप्यहो पाकिमपेशलत्वे न स्वादु भोज्यं लवणेन हीनम् ॥ वही, १४.३६