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हम्मीरमहाकाव्य : नयचन्द्रसूरि
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समीक्षा की जायगी। काव्य में वैदिक ऋचाबों, अज्ञों के अनुष्ठान, उनमें मंत्रों की ध्वनि, दक्षिणा, व्रत आदि की चर्चा से प्रतीत होता है कि वेद तथा धर्मशास्त्र में भी नयचन्द्र की अच्छी गति थी। कवि के रूप में नयचन्द्र निर्मल अर्थ' के पक्षपाती हैं और उसे ही कवि की कीर्ति का आधार मानते हैं । हम्मीरकाव्य में नयचन्द्र ने अपने उस आदर्श का पूर्ण पालन किया है। वह भावपक्ष के कवि हैं किन्तु उन्होंने काव्य में शब्द अर्थात् उसके कलापक्ष की उपेक्षा नहीं की है। वे अपने काव्य के कलात्मक महत्त्व से आश्वस्त हैं। हम्मीरमहाकाव्य में लालित्य तथा वक्रिमा का सुन्दर समन्वय
रसयोजना
काव्य में रस के महत्त्व तथा स्थिति के सम्बन्ध में नयचन्द्र ने अपनी मान्यता का कुछ आभास दिया है । उनके विचार में उत्तम काव्य तीव्र रसानुभूति का ही दूसरा नाम है । शब्दाडम्बर से क्षणिक चमत्कार उत्पन्न कर भावदारिद्रय को छिपाना सामान्य कवि का काम है"। हम्मीरकाव्य में इस उदात्त आदर्श का यथावत् पालन किया गया है । इसकी रचना सहृदय को रसास्वादान कराने के निश्चित उद्देश्य से हुई है । वस्तुतः हम्मीरकाव्य में आद्यन्त रस की अमृतधारा प्रवाहित है जिसका पान करके काव्यरसिक अपूर्व आनन्द प्राप्त कर सकता है। नयचन्द्र ने मानव-हृदय की विविध अनुभूतियों का चित्रण इस कौशल तथा मनोयोग से किया है कि केवल रससमृद्धि की दृष्टि से हम्मीरमहाकाव्य समग्र जैनाजैन काव्य-साहित्य में अत्युच्च बिन्दु का स्पर्श करता है। इसे पढ़ कर हृदय में सहसा जो आनन्द का उद्रेक होता है, उसका कारण रसवत्ता है-क्षोभभावमगमत् सहसा यत् तत्र कारणमसौ रसवत्ता (६.१६) । परन्तु हम्मीरमहाकाव्य में विविध रसों के तारतम्य के बारे में नयचन्द्र का दृष्टिकोण अधिक स्पष्ट नहीं है । काव्य के लिये प्रयुक्त 'श्रृंगारवीराद्भुत' विशेषण शृंगार तथा वीर रस की समकक्षता तथा समान महत्त्व की स्वीकारोक्ति है । अन्यत्र उनकी मान्यताएं परस्पर-विरोधी प्रतीत होती हैं । एक ओर उन्होंने 'समरसंभव' वीररस के ओज को श्रृंगार की माधुरी से अधिक प्राणवान् मानकर वीररस को सर्वोपरि प्रतिष्ठित किया है", दूसरी ओर उन्होंने सुरतसुख को सर्वोत्तम सुख माना है" ३०. वही, ८.१०, ८०, ६.९१, १२, ११.३५ ३१. की] कवीन्द्रा इव निर्मलार्थोत्पत्ति नरेन्द्राः परिभावयन्ति । वही, ८.६. ३२. नयचन्द्रकवेः काव्ये दृष्टं लोकोत्तरं द्वयम् । शिष्यकृता प्रशस्ति, पच ४. ३३. ववन्ति काव्यं रसमेव यस्मिन् निपीयमाने मुदमेति चेतः।
किं कर्णतर्णर्णसुपर्णपर्णाम्यर्णादिवर्गवडम्बरेण ॥ हम्मीरमहाकाव्य, १४.३५ ३४. सरसजनमनःप्रीतये काव्यमेतत् । वही, १४.३४. ३५. अश्रान्तं च समुल्लसन्त्विह रसर्वाचः सुधासेकिमाः । वही, १४.४५ ३६. शृंगारतः समरसंभवो रसो नूनं विशेषमधुरत्वमंचति । वही, १२.१३ ३७. इह सुखेषु सुखं सुरतोद्भवम् । वही, ७.६७