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जैन संस्कृत महाकाव्य तथा हथौड़े से कूट कर उसकी धार बनाई जाती है, फिर उसे ठण्डा करने के लिये पानी में बुझाया जाता है । दीक्षित वासुदेव की तलवार की धार शत्रुओं का गला काटने से कुण्ठित हो गयी है। उसे पुनः तेज़ करने के लिये वासुदेव ने पहले अपने प्रताप की अग्नि में खूब तपाया, तत्पश्चात् उसे शत्रुओं की विधवाओं के अश्रुजल में बुझा दिया। वासुदेव के शौर्य से उसके शत्रु नष्ट हो गये, इस तथ्य को कवि ने कितनी मामिकता से प्रकट किया है।
नयचन्द्र की अप्रस्तुत-योजना की निपुणता उत्प्रेक्षा, अर्थान्तरन्यास, अतिशयोक्ति, अप्रस्तुतप्रशंसा आदि अलंकारों में भरपूर व्यक्त हुई है। काव्य में एक से एक सुन्दर उत्प्रेक्षामों की भरमार है। जलकेलि-प्रसंग की यह उत्प्रेक्षा कल्पनासौन्दर्य से चमत्कृत है।
जानुदध्नमपि तत्सरसोऽम्भः कण्ठदनमभवद् द्रुतमेव । योषिदंगविगल्लवणिम्ना स्फीततामुपगृहीतमिवोच्चैः ॥६.१८
अप्रस्तुत-विधान का यही कौशल अर्थान्तरन्यास में दृष्टिगत होता है, जो कवि का अन्य प्रिय अलंकार है। उत्प्रेक्षा की भाँति यह भी कवि-कल्पना के विहार की उन्मुक्त स्थली है । जलक्रीड़ा के वर्णन में प्रयुक्त यह अर्थान्तरन्यास अप्रस्तुत की मार्मिकता तथा उपयुक्तता के कारण उल्लेखनीय है ।
मुक्तगंधमपि वारिविहारैः पुष्पदाम न जहे शशिमुख्या। न स्वतोऽपि गुणवान् सुखहेयः किं पुनर्यदि स जीवनलीनः ॥६.३७
पृथ्वीराज के युद्ध वर्णन के इस पद्य में रेणुजाल, भ्रमरझंकृति और वीरों का सिंहनाद, इन अनेक प्रस्तुतों का एक धर्म 'अमिलन' के साथ सम्बन्ध होने से सुल्ययोगिता अलंकार है।
प्राग रेणुजलानि ततः करेणुकुम्भभ्रमत्षट्पदझंकृतानि ।
ततो भटानां स्फुटसिंहनादाः सैन्यद्वयस्याप्यमिलंस्तदानीम् ॥३.३५
माघ की भांति नयचन्द्र भी श्लेष के बहुत शौकीन हैं । नयचन्द्र के विरोध; रूपक, उपमा, अतिशयोक्ति, परिसंख्या आदि अन्य अलंकार श्लेष का आधार लेकर आते हैं। पृथक रूप में भी श्लेष का पर्याप्त प्रयोग किया गया है। हम्मीर तथा अलाउद्दीन के द्वितीय दिन के युद्ध-वर्णन में श्लेष का प्रयोग वणित भाव को सशक्त तथा स्पष्ट बनाने में सहायक हुआ है।
कस्याप्यपाकृतगुणोऽत्र मार्गणो लक्षाय धावति तदा स्म धावतु । कोटिद्वयेऽपि सति ननाम यद्धनुः सवंशजस्य न तदस्य साम्प्रतम् ॥ १२१७४
प्रतिवस्तूपमा, दृष्टान्त, व्यतिरेक, सन्देह, यथासंख्य, समासोक्ति, भ्रान्तिमान्, पर्याय, विभावना, उल्लेख, अनुप्रास, यमक, दीपक आदि भी काव्य-सौन्दर्य के वर्धन