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जैन संस्कृत महाकाव्य
यन्निष्कारणदारुणेन विधिना तादृग्गुणकाकर
हम्मीरं हरतांजसा हृतमहो सर्वस्वमेवावनेः ॥ १४.७ ।।
युद्ध तथा क्रोध आदि के कठोर प्रसंग भाषा के ओज से दीप्त हैं । समासबाहुल्य तथा टवर्ग आदि श्रुतिकटु वर्गों का प्राचुर्य ओज की सृष्टि का मूलाधार है । हम्मीरमहाकाव्य में यद्यपि इन प्रसंगों में भी भाषा श्रुतकटुता से अधिक आच्छादित नहीं है किन्तु वह अभीष्ट भाव को वाणी देने में पूर्णतया समर्थ है । भोजदेव की दुर्दशा सुनकर अलाउद्दीन की यह चुनौती अमर्षानुकूल है।
कः कण्ठीरवकण्ठकेसरसटां स्प्रष्टुं पदेनेहते कुन्ताग्रेण शितेन कश्च नयने कण्डूयितुं कांक्षति । कश्चाभीप्सति भोगिवक्त्रकुहरे मातुं च दन्तावलीम् ।
को वा कोपयितुं नु वाञ्छति कुधीरल्लावदीनं प्रभुम् ॥ १०.८२
हम्मीरकाव्य की भाषा इस विविधता से विशेषित है किन्तु नयचन्द्र मूलतः वैदर्भी के कवि हैं । समासाभाव अथवा अल्प समास एवं माधुर्यव्यंजक वर्ण, दूसरे शब्दों में भाषा की पारदर्शी सुबोधता तथा सरलता, वैदर्भी नीति के प्राण हैं । हम्मीरमहाकाव्य की भाषा अधिकतर प्रसादगुण से सम्पन्न है। ऐतिहासिक कथानक के सफल प्रतिपादन के लिये कदाचित् भाषा की सहजता आवश्यक थी। नयचन्द्र की विशेषता यह है कि मुख्य इतिवृत्त से सम्बन्धित युद्ध अथवा नगर का चित्रण हो या उससे असम्बद्ध वस्तु-वर्णन, हम्मीरकाव्य में प्राय: सर्वत्र वैदर्भी का उत्कर्ष दिखाई देता है । इस दृष्टि से वाग्भट की मन्त्रणा तथा जैसिंह की राज्यशिक्षा विशेष उल्लेखनीय है।
शत्रुर्न मित्रतां गच्छेच्छतशः सेवितोऽपि सन् । दीपः स्नेहेन सिक्तोऽपि शीतात्मत्वमिति किम् ॥ ४.६५ मन्त्रान् बहूनामपि धीसखानां श्रेयस्तरान् नैव वदन्ति सन्तः ।
गर्भस्य मातुश्च कुतः शिवाय करा बहूनां बत सूतिकानाम् ॥ ८.६६
सहजता से समवेत इस सुबोधता ने हम्मीरकाव्य की भाषा में लालित्य का संचार किया है, जो बहुधा अनुप्रास की मधुरता तथा यमक की झंकृति से प्रसूत है। भाषात्मक रमणीकता के अतिरिक्त हम्मीरमहाकाव्य का कथानक भी कम सुन्दर नहीं है । परन्तु नयचन्द्र की कविता लालित्य के कारण जितनी प्रसिद्ध है, उतनी ही ख्याति उसे अपनी वक्रिमा के कारण प्राप्त हुई है। हम्मीरकाव्य के सन्दर्भ में वक्रिमा का ५८. लालित्यममरस्यैव श्रीहर्षस्यैव वक्रिमा ।
नयचन्द्रकवेः काव्ये दृष्टं लोकोत्तरं द्वयम् ॥ शिष्यकृता प्रशस्तिः, ३